पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१४

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किन्तु केवल नाम का ही साम्य नहीं है । एक पाश्चात्य विद्वान् का अनुमान है कि बिहार-प्रान्त को प्रकृति-नटी की रंगस्थली समझकर विलास-प्रिय यवन-सम्राटों ने इसका नाम 'बिहार' रक्खा था । हो सकता है कि 'सतसई' की कविता को कान्त-कलेवरा कविता-कामिनी की कमनीय क्रीडा-स्थली और प्रेम तथा शृंगार की विहार-भूमि समझकर ही महाकवि को 'बिहारी' की पदवी दे दी गयी हो, और महाकवि भूषण की तरह इनका भी असली नाम गुम हो गया हो ।

ब्राह्मण होने, बसुवा-गोविन्दपुर में जन्म लेने, बुन्देलखंड में बाल्यावस्था व्यतीत करने और व्रजवासी होने की बदौलत यदि थोड़ी देर के लिए अनुप्रासा-नुरागी इन्हें 'बिहारी' समझ लें, तो क्या हानि होगी ?

जी हाँ, मेरे इन अभिनव अनुमानों में आपत्ति की आशंका अवश्य है । किन्तु इसे मनोरंजक साहित्यिक कल्पना के सिवा और कुछ न समझिएगा ।

फिर देखिए, 'बिहार' शब्द का अर्थ 'मठ' भी होता है । बिहार-प्रान्त में बौद्ध मठों की संख्या अधिक थी, इसलिए इसका नाम 'बिहार' पड़ा । उन मठों में ऐसे स्नातक रहा करते थे, जो देश-विदेश में भ्रमण कर धर्म-प्रचार किया करते थे । मालूम होता है, प्रेम, शृंगार, अनुराग, नायिका-भेद एवं हाव-भाव-रूपी मठों में रहनेवाले 'सतसई' के सात सौ स्नातकों-'दोहों'- ने भी हिन्दी-साहित्य-संसार में सरसता और रसिकता का इस जोर-शोर से प्रचार किया कि महाकवि को बरबस 'बिहारी' की पदवी प्राप्त हो गयी ।

अच्छा, तो अब मेरी कल्पना के हवाई-महल से बाहर निकलकर महाकवि बिहारीलाल के रमणीय कल्पना-कुञ्ज में प्रवेश कीजिए । बिहारीलाल की कविता की समालोचना करने की योग्यता मुझमें नहीं है । उनकी कविता किस दर्जे की थी, इसपर विचार करना भी अरुचिकर और अनधिकार चेष्टा होगी । हाँ, उनकी कविता के सम्बन्ध में यहाँ सिर्फ ऐसी ही बातें कहने की आवश्यकता है, जिनसे सहृदय साहित्य-प्रेमियों का मनोविनोद हो । उनकी कविता कितना रस-परिपाक है, कैसे-कैसे मनोहर शब्द कहाँ और किस खूबी के साथ प्रयुक्त हुए हैं, भाव और अलंकार कितने अनूठे हैं, इन्हीं बातों पर यथाशक्ति कुछ