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सटीक : बेनीपुरी
 

कालबूत-रूपी दूती के बिना दूसरे उपाय से (प्रेम) नहीं जुड़ता। फिर प्रेम-रूपी लदाव (मेहराब) के पक जाने पर—भली भाँति जुट जाने पर—उसे (भराव-रूपी दूती को) अलग करना ही पड़ता है (अर्थात् जब तक पूर्ण से प्रेम स्थापित नहीं हो जाता, तभी तक दूती की आवश्यकता रहती है।)

गोप अथाइनु तैं उठे गोरज छाई गैल।
चलि बलि अलि अभिसार की भली सँझौखैं सैल॥३०८॥

अन्वय—गोप अथाइन तैं उठे गैल गोरज छाई। अलि बलि चलि अभिसार की सँझौखैं सैल भली।

गोप=ग्वाले। अथाइनु=बाहर की बैठक। गोरज=गोधूलि, साँझ समय गौओं के घर लौटते समय उनके खुर-प्रहार से उड़नेवाली धूलि। गैल=राह। बलि=बलैया लेना। अभिसार=वह समय जब नायिका छिपकर अपने प्रेमी से संकेतस्थल पर मिलने जाती है। सँझौखें सैल=संध्या समय की सैर।

गोप लोग (बाहर की) बैठकों से उठ गये। राह में गोधूलि छा गई। सखी! मैं बलैया जाऊँ, चलो, अभिसार के लिए साँझ समय की सैर बड़ी अच्छी होती है—(कोई देखने-सुननेवाला रह ही न गया, रास्ता भी गोधूलि से अंधकारमय हो गया, अतएव प्रीतम से मिलने का यह बड़ा अच्छा अवसर है।)

सघन कुंज घन घन तिमिरु अधिक अँधेरी राति।
तऊ न दुरिहै स्याम वह दीप-सिखा-सी जाति॥३०९॥

अन्वय—कुंज सघन, घन घन अँधेरी राति। तिमिरु अधिक। तऊ स्याम वह दीप-सिखा-सी जाति न दुरिहै।

सघन=घना। घन=मेघ। घन=घना। तिमिर=अंधकार। तऊ=तो भी। दुरिहै=छिपेगी। दीप-सिखा=दिये की लौ।

कुंज सघन हैं—अत्यन्त घने हैं। मेघ मी घने हैं—बादल भी खूब उमड़ रहे हैं। फलतः इस अँधेरी रात में अंधकार और भी अधिक हो गया है। तो भी हे श्याम! वह दीपक की लौ के समान (चमकती हुई नायिका) जाती