पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१५

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[ ग ]

फिर अनुपम लिखना चाहता हूँ । पहले पद-मैत्री, यमक या अनुप्रास देखिए,अलंकारों और ललित भावों की छबि-छटा-

तौ पर वारौं उरबसी, सुनु राधिके सुजान ।
तू मोहन के उर बसी, है उरबसी समान ॥
केसरि के सरि क्यौं सकौ, चंपकु कितकु अनूपु ।
गात-रूपु लखि जातु दुरि, जातरूप को रूपु ॥
सायक सम मायक नयन, रँगे त्रिबिध रँग गात ।
झखौ बिलखि दुरि जात जल, लखि जलजात लजात ॥
बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे मैं न ।
हरिनी के नैनानु तैं, हरि नीके ए नैन ।।
गुड़ी उड़ी लखि लाल की, अँगना अँगना माँह ।
बौरी लौं दौरी फिरति, छुअति छबीली छाँह ।।
गड़े बड़े छवि-छाकु छकि, छिगुनी छोर छुटैं न ।
रहे सुरँग रँग रँगि वही, नह दी मँहदी नैन ।।
रस सिंगार मंजन किए, कंजनु भंजनु दैन ।
अंजनु-रंजनु हूँ बिना, खंजनु गंजनु नैन ॥

कोई सहृदय यह कहने में संकोच नहीं कर सकता कि 'बिहारी ने हिन्दी-साहित्य की श्री-वृद्धि करने में महत्त्वपूर्ण भाग लिया है । इनकी कविता में चमत्कार, लालित्य, मनोज्ञता, सूक्ष्मदर्शिता, सरसता, स्वाभाविकता और मार्मिकता की मात्रा कम नहीं है। इनकी कविता के अनूठे भावों ने हिन्दी-साहित्य में प्रचुर माधुर्य, ओज और प्रसाद भर दिया है । देखिए, प्राकृतिक वर्णन में कैसा रस है-

छकि रसाल-सौरभ सने, मधुर
माधवी-गंध ।
ठौर-ठौर झौंरत झाँपत, झौर-झौर मधु-अंध ॥
रनित भृंग-घंटावली, झस्ति दान-मधुनीरु ।
मंद-मंद आवतु चल्यौ, कुंजर-कुंज-समीरु ॥