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सटीक : बेनीपुरी
 

नोट—दुलहिन की 'नाहीं' पर कविवर दूलह कहते हैं—धरी जब बाहीं तब करी तुम नाही पाय दियो पलँगाही नाहीं-नाहीं कैं सुहाई हो। बोलत में नाहीं, पट खोलत में नाहीं, 'कवि दूलह' उछाहीं लाख भाँतिन लखाई हो॥ चुम्बन में नाहीं, परिरंभन में नाहीं, सब हासन विलासन में नाहीं ठकीठाई हौ। मेलि गलबाहीं केलि कीन्हीं चितचाहीं, यह 'हाँ' ते भली 'नाहीं' सो कहाँ ते सीख आई हौ?"

भौंहनु त्रासति मुँह नटति आँखिनु सौं लपटाति।
ऐंचि छुड़ावति करु इँची आगैं आवति जाति॥३३२॥

अन्वय—भौंहनु त्रासति मुँह नटति आँखिनु सौं लपटाति, ऐंचि करु छुड़ावति इँची आगैं आवति जाति।

त्रासति=डरवाती है। नटति=नहीं-नहीं (इनकार) करती है। ऐंचि=खींचकर। इँची=खिंचती। आगे आवति जाति=सामने वा पास चली आती है।

भौंहों से डरवाती है—भौहें टेढ़ी कर क्रोध प्रकट करती है। मुख से 'नहीं नहीं करती है। आँखों से लिपटती है—प्रेम प्रकट करती है (और) खींचकर (अपना) हाथ (मेरे हाथ से) कुड़ाती हुई भी (वह स्वयं) खिंचती हुई आगे ही आती-जाती है—यद्यपि वह बाँह छुड़ाकर भागने का बहाना करती है, तो भी मेरी ओर बढ़ती आती है।

दीप उजेरैं हू पतिहिं हरत बसनु रति काज।
रही लिपटि छबि की छटनु नेकौं छुटी न लाज॥३३३॥

अन्वय—दीप-उजेरैं हू रति-काज पतिहिं बसनु हरत, छबि की छटनु लिपटि रही, लाज नेकौं न छुटी।

उजेरैं हू=उजाले में भी। बसनु=वस्त्र, साड़ी। रति-काज=सहवास (समागम) के लिए। छटनु=छटा से। नेकौं=जरा भी।

दीपक के उजाले में भी समागम के लिए पति उसके वस्त्र हरण कर रहा है—शरीर से कपड़े हटा रहा है। किन्तु, सौंदर्य की छटा से—शरीर भी शोभा-जनित आभा से लिपटी रहने के कारण उसकी लाज जरा भी न छुटी (यद्यपि