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बिहारी-सतसई
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किये जाने पर बार-बार गले से लिपट जाना; ये सब भावभंगियाँ जिस समागम में हों, वही समागम (वास्तव में) मोक्ष है (मोक्ष-तुल्य आनन्दप्रद है), और प्रकार के मोक्ष में तो अत्यन्त हानि (बड़ा घाटा) है।

नोट—बिहारी ने इसमें समागम-समय की पूरी तस्वीर तो खींच ही दी है, साथ ही शब्द-संगठन ऐसा रक्खा है कि यह योगियों के ब्रह्मानन्द पर भी पूर्ण रूप से घटता है। योगी भी ब्रह्मानन्द में मस्त हो कभी चौंक उठते हैं, कभी उत्तेजित हो जाते हैं, कभी हँस पड़ते हैं, कभी रो पड़ते हैं और कभी भाव-विह्वलता के कारण झपटकर (ध्यानस्थ इष्टदेव से) लिपटने की चेष्टा करते हैं। वही परमानन्दमय 'कैवल्य-परमपद' वास्तविक मोक्ष है, अन्य प्रकार के मोक्ष व्यर्थ हैं।

जदपि नाहिं नाहीं नहीं बदन लगी जक जाति।
तदपि मौंह हाँसी-भरिनु हाँ सीयै ठहराति॥३३९॥

अन्वय—जदपि बदन नाहिं नाहीं नहीं जक लगी जाति तदपि हाँसी-भरिनु भौंह हाँ-सीयै ठहराति।

वदन=मुख। जक=रटन, आदत। हाँसो भरिनु भौंह=प्रसन्न भौंह, आनन्दद्योतक भौंह। हाँ सीयै=हाँ के समान हो। ठहराति=जान पड़ती है।

यद्यपि (नायिका के) मुख में 'नहीं-नहीं-नहीं' की ही रट लग जाती है— वह सदा 'नहीं-नहीं' (इनकार) ही करती जाती है, तथापि हँसी-भरी हुई (विकसित) भौंहों के कारण ('नहीं-नहीं' भी) 'हाँ' के समान ही जान पड़ती है—'हाँ' के समान ही सुखदायक मालूम होती है।

पर्यौ जोरु बिपरीत-रति रुपी सुरति रनधीर।
करत कुलाहलु किंकिनी गह्यौ मौनु मंजीर॥३४०॥

अन्वय—बिपरीत-रति जोरु पर्यौ, धीर सुरति रन-रुपी किंकिनी कुलाहलु करत मंजीर मौनु गह्यो।

बिपरीत रति=(समागम काल में) नायक नीचे और नायिका ऊपर। रुपी=पैर रोपे (जमाये हुई है, डटी है। सुरति=समागम। रन=युद्ध। किंकिनी=कमर में पहनने का एक घुँघरूदार आभूषण, करधनी। मौन गह्यो=