पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१५९

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सटीक : बेनोपुरी
 

अन्वय—सुरत-रँग-रँगी पिय-हियै लगी सब राति जगी। पैंड़-पैंड़ पर ठठुकि कै ऐंड़-भरी ऐंड़ाति।

सुरत = समागम, रति। हियैं लगी = हृदय से सटी हुई। पैंड़-पैंड़ = पग-पग पर। ठठुकि कै = ठिठककर, रुक-रुककर। ऐंड़-भरी = सौभाग्य-गर्व से भरी। ऐंड़ति = अँगड़ाई लेती है, देह ऐंठती है।

समागम के रँग में रँगी, प्रीतम के हृदय से लगी सारी रात जगी है। (अतएव, दिन में आलस के मारे) पग-पग पर ठिठक-ठिठककर गर्व से अँगड़ाई ले रही है।

लहि रति-सुखु लगियै हियैं लखी लजौंही नीठि।
खुलत न मो मन बँधि रही वहै अधखुली डीठि॥३४६॥

अन्वय—रति-सुखु लहि हियैं लगियै लजोंही नीठि लखी, वहै अधखुली डीठि मो मन बँधि रही खुलत न। रति-सुखु = समागम का सुख। हियैं = हृदय में। लजौंही = लजीली। नीठि = मुश्किल से। मो = मेरे। मन बँघि रही = मन में बन रही है।

समागम का सुख पाकर हृदय से लग गई और लजीली (आँखों से) मुश्किल से (मेरी ओर) देखा। उस समय की उसकी वह अधखुली नजर मेरे मन से बँध रही है, खुलती नहीं—उसका वह लजीली और अधखुली नजरों से देखना मुझे नहीं भूलता।

करु उठाइ घूँघटु करत उझरत पट गुझरौट।
सुख मोटैं लूटीं ललन लखि ललना की लौट॥३४७॥

अन्वय—करु उठाइ घूँघटु करत गुझरौट पट उझरत, ललना की लौट लखि ललन सुख मोटैं लूटीं।

उझरत = सरक जाने से। पट गुझरौट = सिकुड़ा हुआ वस्त्र। मोटैं = गठरियाँ। ललन = नायक। ललना = नायिका। लौट = अदा से घूम जाना।

हाथ उठाकर घूँघट करते समय सिकुड़े हुए कपड़ों के सरक जाने से नायिका का (नायक से लजाकर) घूम जाना देखकर नायक ने सुख की मोटरियाँ लूटीं—(सुख का खजाना पा लिया)।