[ घ ] बटोही-बाइ॥ लपटी पुहुप-पराग-पट, सनी सेद-मकरंद । श्रावति नारि-नवोढ़ लौं, सुखद बायु गति-मंद ॥ रुक्यौ साँकरें कुंज-मग, करतु माँ झि झकुरातु । मंद-मंद मारुत-तुर गु, खूदतु आवतु जातु ॥ चुवतु सेद-मकरंद-कन, तरु-तरु-तर बिरमाइ। आवतु दच्छिन-देस ते, थक्यो ज्यौं-ज्यों बढ़ति बिमावरी, त्यों-त्यों बढ़त अनंत । श्रोक-श्रोक सब लोक-सुख, कोक सोक हेमंत ॥ अरुन सरोरुह कर-चरन, दृग खंजन मुख चंद । समै आइ सुन्दरि सरद, काहि न करति अनंद ॥ ऐसे ही और भी बहुत-से दोहे हैं, जिनसे यह प्रकट होता है कि महाकवि बिहारीलाल ने बड़ी सहृदयता के साथ हिन्दी-साहित्य का शृंगार किया है। यदि उनकी यही प्रतिभा, साहित्य के आदि-रस के साथ-ही-साथ, अन्य रसों की ओर भी प्रवृत्त हुई होती, तो आज हिन्दी का काव्य-साहित्य और भी सुसजित होता। बिहारी के अलौकिक शृंगार-वर्णन का रसास्वादन करने से आपको मालूम होगा कि उनकी कविता ने हिन्दी को किस दर्जे तक वैभवशालिनी बनाया है । शोभा, शृङ्गार, सौकुमार्य, हाव-भाव एवं लावण्यलीला का वर्णन करने में उन्होंने वस्तुतः अपनी विलक्षण कवित्वशक्ति दिखायो है। यदि उनका शृङ्गार-रसात्मक तथा प्रसाद-गुण-विशिष्ट ललित वर्णन हिन्दी-साहित्य-भांडार से निकाल दिया जाय, तो हिन्दी के शुभ ललाट की बिन्दो कुछ मन्द पड़ जायगी । बिन्दी की विशेषता बिहारी के इस दोहे से मालूम हो सकती है- कहत सबै बंदी दिय, आँकु दसगुनी होतु । तिय लिलार बदी दियें, अगिनिनु बढ्नु उदोतु ॥ बंदी की तरह अलक-वर्णन में भी कवि ने अपनी गणितज्ञता दिखायी है। देखिए, कैसी बारीक सूझ है- कुटिल अलक छुटि परत मुख, बढिगौ इतौ उदोत । बंक बकारी देत ज्यौं, दामु रुपैया होत ॥