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बिहारी-सतसई
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कर मुँदरी की आरसी प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।
पीठ दियैं निधरक लखै इकटक डीठि लगाइ॥३५३॥

अन्वय—कर मुँदरी की आरसी प्यौ प्रतिबिम्बित पाइ पीठ दियैं इकटक डीठि लगाइ निधरक लखै।

मुँदरी = अँगूठी। आरसी = दर्पण, नगीना। प्यौ = पिया, प्रीतम। पीठ दियैं = मुँह फेरकर बैठी हुई। निधरक = बेधरक, स्वच्छन्दता से।

अपने हाथ की अँगूठी के (उज्वल) नगीने में प्रीतम का प्रतिबिम्ब देख (वह नायिका, प्रीतम की ओर) पीठ करके एकटक दृष्टि लगाकर (उस नगीने में झलकती हुई प्रीतम-छबि को) बेधड़क देख रही है— नगीने में प्रतिबिम्बित प्रीतम की मूर्त्ति देखकर ही प्रिय-दर्शन का आनन्द लूट रही है।

नोट—नायिका बैठी थी, नायक चुपकाप आकर उसके पीछे खड़ा हो गया। उसी समय का वर्णन है। 'रामचरित-मानस' में भी इसी प्रकार का एक वर्णन है—

निज-पानि-मनि महँ देखि प्रति-मूरति सु कृपानिधान की।
चालति न भुज-बल्ली-बिलोकनि बिरह-बस-भइ जानकी॥

मैं मिसहा सोयौ समुझि मुँह चूम्यौ ढिग जाइ।
हँस्यौ खिस्यानी गल रह्यौ रहा गरैं लपटाइ॥३५४॥

अन्वय—मैं मिसहा सोयौ समुझि ढिग जाइ मुँह चूम्यौ, हँस्यौ खिस्यानी गल गह्यौ, गरै लपटाइ रही।

मिसहा = मिस करनेवाला, बहानेबाज, छली। ढिग = निकट। खिस्यानी = लजित हो गई। गल गह्यौ = गलबहियाँ डाल दी। गरें = गले से।

मैंने उस छलिये को सोया हुआ जान निकट जाकर उसका मुँह चूमा। इतने ही में वह (जगा होने के कारण) हँस पड़ा, मैं लज्जित हो गई, उसने गलबाहीं डाल दी। (तो हार-दाँव मैं भी) उसके गले से लिपट गई।

मुँहु उघारि पिउ लखि रह्यौ रह्यौ न गौ मिस-सैन।
फरके ओठ उठे पुलक गए उघरि जुरि नैन॥३५५॥