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सटीक : बेनीपुरी
 

अपनैं कर गुहि आपु हठि हिय पहिराई लाल।
नौलसिरी औरै चढ़ी बौलसिरी की माल॥३६५॥

अन्वय—लाल अपनैं कर बौलसिरी की माल गुहि हठि आपु हिय पहिराई औरै नौलमिरी चढ़ी।

गुहि = गूँथकर। आपु = आप ही, स्वयमेव। हिय = हृदय। नौलसिरी = नवलश्री = नवीन शोभा। औरैं =विलक्षण, विचित्र, निराली। बौलसिरी = मौलिश्री, मौलसिरी का फूल।

लाल (नायक) ने अपने ही हाथों से मौलसिरी की माला गूँथकर और हठ करके स्वयं ही उस (नायिका) के गले में पहनाई। (फिर तो नायक द्वारा पहनाई गई उस मौलसिरी की माला से नायिका के सुन्दर शरीर पर) और ही तरह की (अपूर्व) नवीन शोमा चढ़ (छा) गई।

लै चुभकी चलि जाति जित-जित जलकेलि अधीर।
कीजत केसरि-नीर से तिन-तित के सरि-नीर॥३६६॥

अन्वय—जलकेलि अधीर चुभकी लै जित-जित चलि जाति तित-तित के सरि-नीर केसरि-नीर से कीजत।

लै चुभकी = डुबकी लगाकर। जित = जहाँ। जल-केलि = जलक्रीड़ा। केसरि-नीर = केसर मिश्रित जल। सरि-नीर = नदी का पानी।

जल बिहार में चंचल बनी नायिका डुबकी मारकर जहाँ-जहाँ चली जाती है, वहाँ-वहाँ की नदी के (स्वच्छ) जल को (अपने केसरिया रंग के शरीर की पीली प्रभा से) केसर-मिश्रित जल के समान (पीला) कर देती है।

नोट—कविवर पद्माकर की त्रिवेणी विधायिका नायिका का जल-संतरण या जल बिहार भी देखिए—"जाहिरे जागति-सी जमुना जब बड़ै-बहै-उमहै उहि बेनी, त्यों पदमाकर हीरो के हारनि गंग तरंगन-सी सुखदेनी; पायन के रँग सो रँगि जात सो भाँति ही भाँति सरस्वती-सेनी, तैरे जहाँ ई जहाँ वह बाल तहाँ तहाँ ताल में होत त्रिवेनी।"

किरके नाह नवोढ़-दृग कर-पिचकी जल जोर।
राचन रँग लाली भई बिय तिय लोचन-कोर॥३६७॥