पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१६८

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बिहारी-सतसई
१४८
 


अन्वय—नाह नवोढ़-दृग कर-पिचकी जोर जल छिरके, बिय तिय लोचन-कोर रोचन-रँग लाली भई।

नाह=नाथ, प्रीतम। नवोढ़ा=नवयौवना। कर-पिचकी=दोनों हाथों को एक साथ जल में दबाकर पिचकारी की तरह जल की धार उछालना। रोचन=रोली। बिय=दूसरी। तिय=स्त्री।

प्रीतम ने उस नवयुवती की आँखों में हाथ की पिचकी से जोर से जल छिड़का। (यह देखकर) दूसरी स्त्री (सौत) का आँखों की कोर में रोली के रंग की लाली छा गई—क्रोध से आँखें लाल-लाल हो गईं।

हेरि हिंडोरे-गगन तैं परी परी-सी टूटि।
धरी धाय पिय बीच ही करी खरी रस-लूटि ॥३६८॥

अन्वय—हेरि हिंडोरे गगन तैं परी-सी टूटि परी, पिय धाइ बीच ही धरी, खरी रस लूटि करी।

हेरी=देखकर। परी=अप्सरा। टूटी परी=लपककर कूद पड़ी। खरी=खूब ही, अच्छी तरह। रस लूटि=रसकी लूट।

(प्रीतम को) देखते ही (प्रेमावेश में बेसुध वह सुन्दरी नायिका) झूला रूपी आकाश से परी के समान टूट पड़ी—जैसे स्वर्गीय अप्सरा आकाश से नीचे गिरे, वैसे ही वह हिंडोले से गिर पड़ी; (किन्तु उसे गिरते देख) प्रीतम ने दौड़कर बीच ही में पकड़ लिया (गेंद की तरह ऊपर-ही-ऊपर लोक लिया) पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया—और खूब ही रस की लूट की।

नोट—सखियों के साथ नायिका झूला झूल रही थी। इतने में नायक आ पहुँचा। उसको देखकर नायिका लज्जावश भागने के निमित्त हिंडोले से कूद पड़ी। नायक ने बीच ही में लोककर आलिंगन का सुख लूट लिया।

बरजैं दूनी हठि चढ़ै ना सकुचै न सकाइ।
टूटत कटि दुमची मचक लचकि लचकि बचि जाइ ॥३६९॥

अन्वय—बरजैं दूनी हठि चढ़ै न सकुचै न सकाइ दुमची कटि मचक टूटत लचकि-लचकि बचि जाइ।