बिहारी-सतसई १५० नीठि नीठि उठि बैठ हूँ प्यौ प्यारी परभात । दोऊ नींद भरै खरै गरै लागि गिर जात ।। ३७२ ॥ अन्वय-प्यो प्यारी परमात नीठि नीठि उठि वैठि हूँ दोऊ खरै नींद भरे "० ००० गरै लागि गिर जात । नीठि नीठि =बड़ी मुश्किल से । प्यौ=पिय, प्रीतम । परभात = प्रभात, प्रातः । खर = अत्यन्त । गरै लागि = गले से लिपटकर । प्रीतम और प्यारी (दोनों) प्रातःकाल बड़ी-बड़ी मुश्किल से उठ बैठते भी हैं। (और पुनः ) दोनों अत्यन्त नींद में मरे होने के कारण (परस्पर ) गले से लिपटकर ( सेज पर ) गिर जाते हैं। नोट-नेवाज कवि भी एक ऐसे ही सुरति-श्रान्त दम्पति का वर्णन करते हैं-"छतिया छतिया सों लगाये दोऊ दोऊ जी में दुहूँ के समाने रहैं, गई बीत निसा पै निसा न गई नये नेह में दोऊ बिकाने रहैं। पट खोलि 'नेवाज' न भोर भये लखि द्योस को दोऊ सकाने रहैं, उठि जैबे को दोऊ डराने हैं लपटाने रहें पट ताने रहैं।" लाज गरब आलस उमग भरे नैन मुमुकात । राति रमी रति देति कहि और प्रभा प्रभात ॥ ३७३ ।। अन्वय -लाज गरब आलस उमग भरे नैन "" मुसुकात प्रभात और प्रमा, राति रमी रति कहि देति । गरब =अभिमान । उमग = उत्साह । राति रमी रति = रात में किया गया समागम । औरै = और ही, विचित्र, अनोखा । प्रभा = छबि छटा । अमिमान, आलस्य और उमंग से भरे ( तुम्हारे ) नेत्र मुसकुरा रहे हैं। प्रातःकाल की (तुम्हारी ) यह अनोखी छटा रात में । में किया (स्पष्ट ) कहे देती है। कुंज-भवनु तजि भवनु कौं चलियै नंदकिसोर । फूलति कली गुलाव की चटकाहट चहुँ ओर ॥ ३७४ ॥ अन्वय-नंदकिसोर कुंज-भवन तजि भवन कौं चलिये गुलाब की कली फूलति चटकाहट चहुँ ओर । लजा, । गया समागम