पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१७३

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सटीक : बेनीपुरी (कि कोई देख न ले।) यों उसका सारा दिन प्रीतम द्वारा खंडित किये गये अधर को दर्पण में देखने ही में बीतता है। नोट-प्रीतम ने रति-रण-रंग-रस-मत्त होकर चुम्बन करते समय सुकोमल अधर पर दाँत गड़ा दिये थे, जिससे वह खंडित (रदच्छत) हो गया था । और ओप कनीनिकनु गनी घनी सिरताज । मनी धनी के नेह की बनी छनी पट लाज ॥ ३८० ॥ अन्वय-कनीनिकनु भोप औरै धनी सिरताज गनी लाज पट छनी धनी के नेह की मनी बनीं। ओप= कान्ति । कनीनिकनु = आँखों की पुतलियाँ । गनी =गिनी है। मानी हैं । घनी=सबों में, बहुतेरों में । मनि =मणि, तेजस्विता । धनीप्रीतम, नायक। पट:वस्त्र। (तुम्हारी आँखों की) पुतलियों में आज कुछ दूसरी ही कान्ति है, (इसीलिए तो मैंने इन्हें ) सबों में सिरताज माना है । लाज-रूपी वस्त्र से छनकर ये प्रीतम के (निर्मल) नेह की मणि बनी हुई है-यद्यपि लज्जा से ढंकी हुई है, तो भी इनसे, नायक का प्रेम, कपड़े से ढंकी हुई (दिव्य ) मणि की ( उज्ज्वल ) प्रामा के समान, प्रकट हो ( झलक ) रहा है । कियौ जु चिबुक उठाइकै कम्पित कर भरतार । टेढ़ीयै टेढ़ी फिरति टेरै तिलक लिलार ।। ३८१ ।। अन्वय-कम्पित कर भरतार चिबुक उठाइकै जु कियौ लिलार टंदै तिलक टेढ़ीये टेढ़ी फिरति । चिबुक: ठुड्डी । कर = हाथ | भरतार = पति । तिलक = टोका । टेदीय टेढ़ी फिरति = ऐंठती हुई ही घूमती फिरती है । लिलार =ललाट । (प्रेमावेश से) कांपते हुए हाथों से पति ने जो टुड्डा उठाकर (टोका) कर दिया, सो ललाट में उस टेढ़ी टीका को ही लगाये हुए वह टेढ़ी-ही-टेढ़ी अनी फिरनी है—घमंड में एंठती हुई चलती है । वेई गड़ि गाड़ें परी उपट्यौ हाम हिौं न । धान्यौ मोरि मतंगु-मनु मारि गुरेग्नु मैन ।। ३८२ ।।