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बिहारी-सतसई
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किसी कामिनी के पास जगकर अपनी आँखें लाल-लाल बना लाये हो, उन्हींकी छाया मेरी आँखों में पड़ी है!)

नोट—नायिका ने परस्त्री-संगी नायक को देखते ही क्रुद्ध होकर आँखें लाल कर ली हैं। नायक इसका कारण पूछता है। नायिका अनुकूल जवाब देती है। बड़ी अनोखी सूझ है।

तरुन कोकनद बरन बर भए अरुन निसि जागि।
वाही कैं अनुराग दृग रहे मनो अनुरागि॥३८७॥

अन्वय—निसि जागि तरुन कोकनद बर बरन अरुन भए। मनो वाही कैं अनुराग दृग अनुरागि रहे।

तरुन = नवीन, विकसित। कोकनद = लाल कमल। बरन = रंग। अरुन = लाल। अनुरागि रहे = रँग रहे।

रात-भर जगने से नये नाल कमल के सुन्दर रंग के समान नेत्र लाल हो गये हैं मानो उसी (अन्य स्त्री) के प्रेम में आपके नेत्र अनुरंजित हो रहे हैं-रँग गये हैं।

केसर केसरि-कुसुम के रहे अंग लपटाइ।
लगे जानि नख अनखुली कत बोलति अनखाइ॥३८८॥

अन्वय—केसरि-कुसुम के केसर अंग लपटाइ रहे, अनखुली नख लगे जानि कत अनखाइ बोलति।

केसर = पराग-तन्तु (जो लाल पतले डोरे के समान होता है), किंजल्क। अनखुली = अनखानेवाली, क्रोधिता।

केसर के फूल के पराग-तन्तु (नायक के) शरीर से लिपट रहे हैं। अरी क्रोधिता! उसे (दूसरी स्त्री के) नख लगा जानकर—परस्त्री-समागम के समय का नख-क्षत समझकर—तू क्यों अनखा (क्रोध से झुँझला) कर बोल रही है? सदन सदन के फिरन की सद न छुटै हरिराइ। रुचै तितै बिहरत फिरौ कत बिदरत उरु आइ॥३८९॥