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बिहारी-सतसई
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अकस्मात् जिसका नाम तुम्हारे मुख से निकल गया है—उसीको लेकर हृदय से लगाओ। हे लाल! मैं तुम्हारे पाँव लगती हूँ—पैरों पड़ती हूँ।

लालन लहि पाऐं दुरै चोरी सौंह करैं न।
सीस चढ़े पनिहा प्रगट कहैं पुकारैं नैन॥३९२॥

अन्वय—लालन लहि पाऐ सौंह करैं चोरी न दुरै नैन पनिहा सीसी चढ़े पुकारैं प्रगट कहैं।

लहि पाऐ = पकड़े जाने पर। दुरैं = छिपै। सौंह = शपथ। पनिहा = चोर पकड़नेवाले तांत्रिक। सीस चढ़े पुकारैं = बिना पूछे ही आप-से-आप बता रहे हैं।

हे लाल! पकड़े जाने पर शपथ करने से भी चोरी नहीं छिपती। ये तुम्हारे नेत्र पनिहा के समान सिर चढ़कर पुकार-पुकार स्पष्ट कह रहे हैं—तुम्हारे अलसाये हुए नेत्र देखने से ही सब बातें प्रकट हो जाती हैं (कि तुम कहीं रात-मर रमे हो)।

तुरत सुरत कैसैं दुरत मुरत नैन जुरि नीठि।
डौंड़ी दै गुन रावरे कहति कनौड़ी डीठि॥३९३॥

अन्वय—तुरत सुरत कैसैं दुरत नैन नीठि जुरि मुरत कनौड़ी डीठि डौंड़ी दै रावरे गुन कहति।

सुरत = समागम, मैथुन। मुरत = मुड़ते हैं। नीठि = मुश्किल से। डौंडी दै = ढोल बजाकर। रावरे = आपके। कनौड़ी = लज्जित, अधीन। डीठि = दृष्टि।

तुरत किया हुआ समागम कैसे छिप सकता है? (प्रमाण लीजिए— आपके अलसाये हुए) नेत्र मुश्किल से (मेरे नेत्रों से) जुड़ते हैं, और (फिर तुरत ही) मुड़ जाते हैं—मेरे सामने मुश्किल से आपकी आँखें बराबर होती हैं। आपकी यह लज्जित दृष्टि ही ढोल बजा-बजाकर आपके गुणों को कह रही है।

मरकत-भाजन-सलिल गत इंदु-कला कैं बेख।
झीन झगा मैं झलमलत स्यामगात नख-रेख॥३९४॥