पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१७८

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बिहारी-सतसई १५८ अकस्मात् जिसका नाम तुम्हारे मुख से निकल गया है-उसीको लेकर हृदय से लगाओ । हे लाल ! मैं तुम्हारे पाँव लगती हूँ-पैरों पड़ती हूँ। लालन लहि पाएँ दुरै चोरी सौंह करें न । सीस चढ़े पनिहा प्रगट कहैं पुकारे नैन ॥ ३९२ ।। अन्वय-लालन लहि पाएं सौंह करें चोरी न दुरै नैन पनिहा सीसी चढ़े पुकारें प्रगट केहैं। लहि पाएँ = पकड़े जाने पर । दुरै = छिपै । सौंह = शपथ । पनिहा = चोर पकड़नेवाले तांत्रिक । सीस चढ़े पुकारें = विना पूछे ही आप-से-आप बता रहे हैं। हे लाल ! पकड़े जाने पर शपथ करने से भी चोरी नहीं छिपती। ये तुम्हारे नेत्र पनिहा के समान सिर चढ़कर पुकार-पुकार स्पष्ट कह रहे हैं-तुम्हारे अलसाये हुए नेत्र देखने से ही सब बातें प्रकट हो जाती हैं (कि तुम कहीं रात-मर रमे हो)। तुरत सुरत कैसैं दुरत मुरत नैन जुरि नीठि । डौंड़ी दै गुन रावरे कहति कनौड़ी डीठि ॥ ३९३ ॥ अन्वय-तुरत सुरत दुरत नैन नीठि जुरि मुरत कनौड़ी डीठि डौंड़ी दै रावरे गुन कहति । सुरत =समागम, मैथुन | मुरत= मुड़ते हैं । नीठि = मुश्किल से । डौंडी दै = ढोल बजाकर | रावरे=आपके । कनौड़ी = लजित, अधीन । डीठि = दृष्टि। तुरत किया हुआ समागम कैसे छिप सकता है ? ( प्रमाण लीजिए- आपके अलसाये हुए) नेत्र मुश्किल से ( मेरे नेत्रों से ) जुड़ते हैं, और ( फिर 'तुरत ही) मुड़ जाते हैं—मेरे सामने मुश्किल से आपकी आँखें बराबर होती हैं । आपकी यह लज्जित दृष्टि ही ढोल बजा बजाकर आपके गुणों को कह रही है । मरकत-भाजन-सलिल गत इंदु-कला के बेख । झीन झगा मैं झलमलत स्यामगात नख-रेख ॥ ३९४ ॥