पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७१
सटीक : बेनीपुरी
 

वह मृगनैनी क्रोध और उदासीनता से भरी खड़ी-खड़ी व्याकुलता के साथ देख रही है। (सुकोमल शय्या पर) वेणी का दाग देखकर शयन करने के लिए नहीं जाती—(यह समझकर कि इस पलंग पर प्रीतम ने किसी दूसरी स्त्रि के साथ विहार किया है)

हँसि हँसाइ उर लाइ उठि कहि न रुखौंहैं बैन।
जकित थकित ह्वै तकि रहे तकत तिलौंछे नैन॥४२५॥

अन्वय—हँसि हँसाइ उठि उर लाइ रुखौंहैं बैन न कहि। तिलौंछे नैन तकत जकित थकित ह्वै तकि रहे।

लाइ = लगाओ। रुखौंहैं = नीरस। जकित = स्तम्भित। तिलौंछे = तिरछे।

हँसाकर हँसो और उठकर छाती से लगा लो, यों रूखी बातें न कहो। (देखो) तुम्हारे तिरछी आँखों से देखते ही ये (प्रीतम) स्तम्भित और शिथिल-से हो रहे हैं।

रम की-सी रुख ससिमुखी हँसि-हँसि बोलति बैन।
गूढ़ मानु मन क्यौं रहै भए बूढ़-रँग नैन॥४२६॥

अन्वय—ससिमुखी रस की-सी रुख हँसि-हँसि बैन बोलति मन मानु गूढ़ क्यों रहै नैन बूढ़-रँग भए।

रस = प्रेम। रुख = चेष्टा। गूढ़ = गुप्त, छिपा हुआ। बूढ़ = बीरबहूटी, एक लाल बरसाती कीड़ा।

वह चन्द्रवदनी प्रेम की-सी चेष्टा से हँस-हँसकर बातें करती है, उसके हृदय का मान गुप्त कैसे रह सकता है, (फलतः) आँखें बीरबहूटी के रंग की (लाल-लाल) हो उठी हैं।

मुँह मिठासु दृग चीकने भौंहैं सरल सुभाइ।
तऊ खरैं आदर खरौ खिन-खिन हियौ सकाइ॥४२७॥

अन्वय—मुँह मिठासु दृग चीकने भौंहैं सुभाइ सरल, तऊ खरैं आदर खिन-खिन हियौ खारौ सकाइ।

सुभाइ = स्वभावतः। तऊ = तेरी। खरौं-खरौं = अत्यन्त। खिन-खिन = क्षण-क्षण। सकाइ = शंकित होता है।