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सटीक : बेनीपुरी
 

अन्वय—हा हा बदनु उघारि सबु कोइ दृग सुफल करैं, सरोजन के रोज पर ससी की हँसी होइ।

बदन उघारि = घूँघट उठा दो। रोज परै = रोना पड़े। हँसी = निंदा।

अहाहा! जरा अपना मुख उघार दो, ताकि सब कोई नेत्र सफल कर लें, कमलों को रोना पड़े, और चन्द्रमा की हँसी हो।

गहिली गरबु न कीजिये सभै सुहागहिं पाइ।
जिय की जीवनि जेठ सो माह न छाँह सुहाइ॥४४२॥

अन्वय—गहिली सभै सुहागहिं पाइ गरबु न कीजिये, जो छाँह जेठ जिय की जीवनि सो माह न सुहाइ।

गहिली = (सं॰ ग्रहिली) पगली। माह = माघ। छाँह = छाया।

अरी बावली! यह जवानी का समय और प्रीतम के प्रेम का सौभाग्य पाकर अभिमान न कर। देख, जो जेठ (जवानी) में प्राणों का प्राण है, वहीं छाया (स्त्री) माघ में (जवानी ढलने पर) नहीं सुहाती—अच्छी नहीं लगती।

कहा लेहुगे खेल पैं तजौ अटपटी बात।
नैकु हँसौंही हैं भई भौंहैं सौंहें खात॥४४३॥

अन्वय—खेल कहा पैं लेहुगे, अटपटी बात तजौ, सौंहैं खात भौंहैं नैकु हँसौंही भई हैं।

कहा = क्या। लेहुगे = लोगे, पाओगे। खेल पैं = विनोद से। अटपटी = बे-सिर-पैर की। हँसौंही = हँसीली। सौंहैं = सौगन्द।

इस खेल में क्या पा जाओगे? अटपटी बातों को छोड़ो। कितनी सौगन्दें खाने पर इसकी भौंहें जरा हँसीली हुई हैं—तुम्हारी निर्दोषिता के विषय में कितनी सौगन्दें खाकर मैंने इसे कुछ-कुछ मनाया है। (फिर अंटसंट बोलकर इसे क्यों चिढ़ा रहे हो?)

सकुचि न रहियै स्याम सुनि ए सतरौहैं बैन।
देत रचौंहैं चित कहे नेह नचौंहैं नैन॥४४४॥

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