पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१९८

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चलें =चलने पर। बिहारी-सतसई १७८ अन्वय-ए सतरौं हैं बैन सुनि स्याम सकुचि न रहियै, नेह नचौह नैन रची चित कहे देत । सकुचि = संकोच करके । सतरौं हैं = क्रोधपूर्ण । बैन वचन । रचौहैं = प्रेम में शराबोर, राँचे हुए । नचौं हैं = नाचते हुए, चंचल । इन क्रोधपूर्ण बातों को सुनकर, हे श्याम, संकोच करके न रह जाइए। उसकी प्रेम से चंचल हुई आँखें ही अनुरागपूर्ण चित्त को जताये देती हैं-प्रेम से चंचल हुए नेत्र देखकर प्रकट होता है कि उसका हृदय प्रेम से शराबोर है। चलौ चलें छुटि जाइगौ हठु राव सँकोच । खरे चढ़ाए हे ति अब आए लोचन लोच ॥ ४४५ ।। अन्वय-चनौ चलें रावरै संकोच हठ छुटि जाइगो, हे ति, अब खड़े चढ़ाए ही लोचन लोच श्राए रावरें आपके, तुम्हारे । सँकोच =मुरौवत, मुलाहजा, लिहाज । खरे चढ़ाए = खूब चढ़े हुए, क्रुद्ध । चनो, चनने पर तुम्हारे संकोच में पड़कर उसका हठ (मान) छूट -वह मान जायगी, क्योंकि जो नेत्र तब खूब चढ़े हुए (क्रुद्ध) थे, उनमें अब लोच (कोमलता) श्रा गई है-उसकी चढ़ी हुई आँखें अब नम्र हो गई हैं। अनरस हूँ रस पाइयतु रसिक रसीली पास । जैसे साँठे की कठिन गाँध्यौ भरी मिठास ॥४४६ ।। अन्वय-रसिक रसीली पास अनरस हूँ रस पाइयतु, जैसे साँठे की कठिन गाँठ्यो भरी मिठास । साँठे=ऊँख, ईख । गाँठ्यौ = गाँठ (गिरह ) में भी। ऐ रसिया ! रसीली (नायिका) के पास अनरस (क्रोध और मान) में भी रस (आनंद) मिलता है, जिस प्रकार उख की कठिन गाँठ में मिठास मी भरी हुई रहती है। क्यौंहूँ सह मात न लगै थाके भेद उपाइ । हठ दृढ़-गढ़ गढ़वै सु चलि लीजै सुरंग लगाइ।। ४४७ ॥ जायगा