अन्वय—ए सतरौंहैं बैन सुनि स्याम सकुचि न रहियै, नेह नचौंहैं नैन रचौंहैं चित कहे देत।
सकुचि = संकोच करके। सतरौंहैं = क्रोधपूर्ण। बैन = वचन। रचौंहैं = प्रेम में शराबोर, राँचे हुए। नचौंहैं = नाचते हुए, चंचल।
इन क्रोधपूर्ण बातों को सुनकर, हे श्याम, संकोच करके न रह जाइए। उसकी प्रेम से चंचल हुई आँखें ही अनुरागपूर्ण चित्त को जताये देती हैं—प्रेम से चंचल हुए नेत्र देखकर प्रकट होता है कि उसका हृदय प्रेम से शराबोर है।
चलौ चलैं छुटि जाइगौ हठु रावरैं सँकोच।
खरे चढ़ाए हे ति अब आए लोचन लोच॥४४५॥
अन्वय—चलौ चलैं रावरैं सँकोच हठ छुटि जाइगौ, हे ति, अब खड़े चढ़ाए ही लोचन लोच आए।
चलैं = चलने पर। रावरैं = आपके, तुम्हारे। सँकोच = मुरौवत, मुलाहजा, लिहाज। खरे चढ़ाए = खूब चढ़े हुए, क्रुद्ध।
चलो, चलने पर तुम्हारे संकोच में पड़कर उसका हठ (मान) छूट जायगा—वह मान जायगी, क्योंकि जो नेत्र तब खूब चढ़े हुए (क्रुद्ध) थे, उनमें अब लोच (कोमलता) आ गई है—उसकी चढ़ी हुई आँखें अब नम्र हो गई हैं।
अनरस हूँ रस पाइयतु रसिक रसीली पास।
जैसे साँठे की कठिन गाँठ्यौ भरी मिठास॥४४६॥
अन्वय—रसिक रसीली पास अनरस हूँ रस पाइयतु, जैसे साँठे की कठिन गाँठ्यौ भरी मिठास।
साँठे = ऊँख, ईख। गाँठ्यौ = गाँठ (गिरह) में भी।
ऐ रसिया! रसीली (नायिका) के पास अनरस (क्रोध और मान) में भी रस (आनंद) मिलता है, जिस प्रकार उख की कठिन गाँठ में मिठास भी भरी हुई रहती है।
क्यौंहूँ सह मात न लगै थाके भेद उपाइ।
हठ दृढ़-गढ़ गढ़वै सु चलि लीजै सुरँग लगाइ॥४४७॥