पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१९९

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सटीक:बेनीपुरी
 

अन्वय—क्यौंहूँ सह मात न लगै भेद उपाइ थाके, सु चलि हठ दृढ़-गढ़ गढ़वै सुरँग लगाइ लीजै।

सह = (१) शह = शतरंज की एक चाल, जिससे शाह की मात होती है (२) युक्ति। मात न लगे = (१) मात (परास्त) नहीं होती (२) नहीं मानती। गढ़वै = किलेदार, गढ़पति। सुरँग = (१) जमीन के अन्दर-ही-अंदर खोदकर बना हुआ बन्द रास्ता (२) सुन्दर प्रेम। कहीं कही 'सह मात' के स्थान पर 'सह बात' भी पाठ है, जिसका अर्थ है 'मेल को बातचीत।'

किसी प्रकार शह देने से भी मात नहीं होती—किसी भी युक्ति से नहीं मानती। भेद (फूट) के सारे उपाय थक गये—मैं समझा बुझा (फोड़) कर हार गई। (अतएव) अब आप ही चजकर उस हठ-रूपी दृढ़ गढ़ की किलेदारिन को सुरंग लगाकर—सुन्दर प्रेम जताकर—(जीत) लीजिए।

वाही निसि तैं ना मिटौ मान कलह को मूल।
भलें पधारैं पाहुने ह्वै गुड़हर को फूल॥४४८॥

अन्वय—कलह कौ मूल मान वाही निसि तैं ना मिटौ, पाहुने गुड़हर कौ फूल ह्वैं भलैं पधारैं।

कलह = झगड़ा। मूल = जड़। पाहुने = अतिथि, मेहमान। गुड़हर कौ फूल = अड़हुल का फूल।

हे झगड़े का मूल मान! तुम उसी रात से नहीं मिटे—उस रात से अबतक तुम वर्त्तमान हो। ऐ पाहुने! अड़हुल का फूल होकर तुम अच्छे आये!

नोट—भाव यह है कि मान कभी-कभी पाहुने की तरह आता और कुछ काल तक ठहरता हे और, स्त्रियों का विश्वास है कि जिस घर में अड़हुल का फूल होगा, वहाँ स्त्री-पुरुष में न पटेगी। इसलिए यहाँ 'पाहुन' और 'अड़हुल का फूल' कहा है।

आए आपु भली करी भेटन मान-मरोर।
दूरि करौ यह देखिहै छला छिगुनिया छोर॥४४९॥

अन्वय—मान-मरोर मेटन आए आपु भला करो। छिगुनिया छोर छला दूरि करौ यह देखिहै।