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बिहारी-सतसई
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छला = अँगूठी। छिगुनिया = कनिष्ठा अँगुली। छोर = अन्त।

मान का मरोड़ (ऐंठ) मेटने को—समझा-बुझाकर (इस नायिका को) मनाने के लिए—आये, सो तो आपने अच्छा ही किया। किन्तु छिगुनी के छोर में पहनी गई इस अँगूठी को—(जो निस्संदेह किसी अन्य युवती की है, क्योंकि छोटी—पतली उँगलियों में पहनी जानेवाली—होने के कारण आपकी अँगुली के छोर पर ही अटकी हुई है)—दूर कीजिये, (नहीं तो) वह देख लेगी (तो फिर मनाना कठिन हो जायगा!)

हम हारी कै कै हहा पाइनु पार्यौ प्यौऽरु।
लेहु कहा अजहूँ किए तेह तरेर्यौ त्यौरु॥४५०॥

अन्वय—हहा कै कै हम हारीं अरु प्यौ पाइनु पार्यौ, अजहूँ त्यौरु तेह तरेर्यौ किए कहा लेहु।

कै कै हहा = हाय-हाय या दौड़-धूप और कोशिश पैरवी करके। पार्यौ = डाल दिया। प्यौऽरु = प्यौ + अरु = अरु प्यौ = और प्रीतम को। अजहूँ = अब भी, इतने पर भी। तेह तरेर्यौ त्यौरु = क्रोध से त्योरियाँ चढ़ाये।

हाय-हाय करके मैं हार गई, और प्रीतम को भी तुम्हारे पैरों पर लाकर डाल (गिरा) दिया—(मैं भी समझा-बुझाकर थक गई और नायक भी मेरे कहने से तुम्हारे पैरों पड़ा)—इतने पर भी क्रोध से त्योरियाँ चढ़ाकर क्या पाओगी?

लखि गुरुजन बिच कमल सौं सीसु छुवायौ स्याम।
हरि-सनमुख करि आरसी हियैं लगाई बाम॥४५१॥

अन्वय—गुरुजन बिच लखि स्याम सीसु कमल सौं छुवायौ, बाम हरि-सनमुख आरसी करि हियैं लगाई।

गुरुजन = श्रेष्ठ पुरुष, माता-पिता आदि। सौं = से। आरसी = आईना। बाम = बामा, युवती स्त्री।

(उसे) गुरुजनों के बीच में देखकर श्रीकृष्ण ने अपना सिर कमल से छुलाया (अर्थात्—हे कमलनयने! अभिवादन करता हूँ) इसपर उस स्त्री (राधिका) ने दर्पण को श्रीकृष्ण के सम्मुख करके हृदय से लगाया (अर्थात्—इसी दर्पण के समान मेरे निर्मल हृदय में भी तुम्हारा प्रतिबिम्ब विराज रहा है)।