बिहारी-सतसई १८० । छला=अँगूठी । छिगुनिया = कनिष्ठा अँगुली । छोर =अन्त । मान का मरोड़ (ऐंठ) मेटने को-समझा-बुझाकर ( इस नायिका को) मनाने के लिए-आये, सो तो आपने अच्छा ही किया। किन्तु छिगुनी के छोर में पहनी गई इस अंगूठी को-(जो निस्संदेह किसी अन्य युवती की है, क्योंकि छोटी-पतली उँगलियों में पहनी जानेवाली -होने के कारण आपकी अँगुली के छोर पर ही भटकी हुई है)-दूर कीजिये, (नहीं तो) वह देख लेगी (तो फिर मनाना कठिन हो जायगा !) हम हारी के के हहा पाइनु पास्थौ प्यौऽरु । लेहु कहा अजहूँ किए तेह तरेरयौ त्यौरु ॥ ४५० ।। अन्वय-हहा के के हम हारी अरु प्यो पाइनु पास्यौ, अजहूँ त्यौर तेह तरेत्यौ किए कहा लेहु । कै कै हहा =हाय-हाय या दौड़-धूप और कोशिश पैरवी करके । पारयो- डाल दिया । प्योऽरु = प्यौ + अरु =अरु प्यौ=और प्रीतम को। अजहूँ = अब भी, इतने पर भी । तेह तरेरथो त्यौरु =क्रोध से त्योरियाँ चढ़ाये । हाय-हाय करके मैं हार गई, और प्रीतम को भी तुम्हारे पैरों पर लाकर डाल (गिरा) दिया-(मैं भी समझा-बुझाकर थक गई और नायक भी मेरे कहने से तुम्हारे पैरों पड़ा )-इतने पर भी क्रोध से त्योरियाँ चढ़ाकर क्या पाओगी? लखि गुरुजन बिच कमल सौ सीसु छुवायौ स्याम । हरि-सनमुख करि आरसी हिय लगाई वाम ॥ ४५१ ॥ अन्वय-गुरुजन बिच लखि स्याम सीसु कमल सौं छुवायौ, बाम हरि- सनमुख आरसी करि हिय लगाई। गुरुजन= श्रेष्ठ पुरुष, माता-पिता आदि । सौं=से। आरसी =आईना। बाम=बामा, युवती स्त्री। ( उसे ) गुरुजनों के बीच में देखकर श्रीकृष्ण ने अपना सिर कमल से छुलाया (अर्थात्-हे कमलनयने ! अभिवादन करता हूँ) इसपर उस स्त्री (राधिका) ने दर्पण को श्रीकृष्ण के सम्मुख करके हृदय से लगाया (अर्थात्- इसी दर्पण के समान मेरे निर्मल हृदय में भी तुम्हारा प्रतिबिम्ब विराज रहा है)। , ।