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बिहारी-सतसई
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(प्यारी का) अदब के साथ इठलाना भी हृदय में भय उत्पन्न करता है। जिस प्रकार सोंठ की मिठास (सोंठ का स्वामाविक स्वाद तीता है, अतएव उसकी मिठाम) विष की कठिन शंका पैदा करती है।

राति द्यौस हौंसै रहति मान न ठिकु ठहराइ।
जेतौ औगुन ढूँढ़ियै गुनै हाथ परि जाइ॥४५५॥

अन्वय—राति द्यौस हौंसै रहति, मान ठिकु न ठहराइ, जेतौ औगुन ढूँढ़ियै गुनै हाथ परि जाइ।

हौसै रहति = हौसला ही बना रहता है। ठिकु न ठहराइ = ठीक नहीं जँचता। हाथ परि जाइ = हाथ लग (मिल) जाते हैं।

रात-दिन उत्सुकता बनी रहती है (कि मान करूँ), किन्तु मान ठीक नहीं जँचता। (क्योंकि मान करने के बहाने के लिए) जितने ही अवगुण उसमें ढूँढ़ती हूँ, उतने ही गुणों (पर) हाथ पड़ जाते हैं।

नोट—कविवर 'रहीम' की नायिका कहती है—"करत न हिय अपरधवा सपने पीय, मान करन की बेरियाँ रहि गइ हीय।"

सतर भौंह रूखे बचन करति कठिनु मनु नीठि।
कहा करौं ह्वै जाति हरि हेरि हँसौंहीं डीठि॥४५६॥

अन्वय—नीठि भौंह सतर बचन रूखे मनु कठिनु करति कहा करौं हरि हेरि डीठि हँसौंहीं ह्वै जाति।

सतर = तिरछी। नीठि = मुश्किल से। कहा = क्या। हेरि = देखकर। हँसौंहीं = हँसीयुक्त, प्रफुल्ल।

(भान करने की गरज से) मुश्किल से भौंहें तिरछी, वचन रूखे और मन कठोर करती हूँ, (किन्तु) क्या करूँ, श्रीकृष्ण को देखते ही दृष्टि विकसित हो जाती है—आँखें हँस पड़ती हैं! (फिर मान कैसे हो?)

भो ही कौ छुटि मान गौ देखत ही ब्रजराज।
रही घरिक लौं मान-सी मान करे की लाज॥४५७॥

अन्वय—ब्रजराज देखत ही भो ही कौ मान छुटि गौ, मान-सी मान करे की बाज घरिक लौं रही।