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सटीक : बेनीपुरी
 

मो = मेरे। ही = हृदय। छुटि गौ = छूट गया। ब्रजराज = श्रीकृष्ण। घरिक = घड़ी+एक = एक घड़ी। मान-सी = मान के समान।

श्रीकृष्ण को देखते ही मेरे हृदय का मान छूट गया। हाँ, उस मान के समान मान करने की लाज एक घड़ी तक अवश्य रही—(एक घड़ी तक इस लाज में ठिठकी रही कि ऐसा मान नाहक क्यों किया, जो निभ न सका।)

दहैं निगोड़े नैन ए गहैं न चेत अचेत।
हौं कसु कै रिसहे करौं ए निसिखे हँसि देत॥४५८॥

अन्वय—ए निगोड़े नैन दहैं, अचेत चेत न गहैं, हौं कसु कै रिसहे करौं ए निसिख हँसि देत।

चेत न गहैं = होश नहीं सँभालते। अचेत = बेहोश। कसु कै = कसकर, चेष्टा करके। रिसहे = रोषयुक्त। निसिखे = अशिक्षित, मूर्ख।

ये निगोड़े नैन जल जायँ। ये बेहोश कुछ भी होश नहीं सँभालते। मैं कसकर—बड़ी चेष्टा से—इन्हें रोषयुक्त बनाती हूँ, और ये मूर्ख हँस देते हैं।

तुहूँ कहति हौं आपु हूँ समुझति सबै सयानु।
लखि मोहनु जौ मनु रहै तौ मनु राखौं मानु॥४५९॥

अन्वय—तुहूँ कहति हौं आपु हूँ सबै सयानु समुझति, मोहनु लखि जौ मनु रहै तौ मनु मानु राखौं।

आपु हूँ = स्वयं भी। सयानु = चतुराई की बातें, चातुरी।

तू भी कहती है और मैं स्वयं भी सब चातुरी समझती हूँ। किन्तु मोहन को देखकर जो मन स्थिर रह सके, तभी तो मन में मान रक्खूँ? (उन्हें देखकर मन ही नहीं स्थिर रहता, फिर मान कैसे करूँ?)

मोहिं लजावत निलज ए हुलसि मिलत सब गात।
भानु-उदै की ओस लौं मानु न जानति जात॥४६०॥

अन्वय—ए निलज सब गात हुलसि मिलत मोहिं लजावत, भानु-उद की ओस लौ मानु जानति न जात।

हुलसि = लालसा से भरकर। भानु = सूर्य। मानु = मान, गर्व।