. बिहारी-सतसई आपने मुझे (मन) दिया, ( फलतः ) वह मेरा हो गया, और अब वह मेरे प्राणों के साथ मिलकर रहता है। उस मन को (जबरदस्ती ) बाँधकर, प्रीतम, सौतिन के हाथ मन सौंपिए । (एक तो उसपर मेरा अधिकार, दूसरे वह मुझसे राजी, फिर न्यायतः उसे दूसरे को देना आपको उचित नहीं!) मारयौ मनुहारिनु भरी गारयौ खरी मिठाहिं । वाकी अति अनखाहटौ मुसक्याहट बिनु नाहिं ।। ४६६ ॥ अन्वय-मास्यौ मनुहारिनु भरी गास्यौ खरी मिठाहिं, वाको अति अन- " खाहटौ बिनु मुसक्याहट नाहिं । मारथौ =मार भी । मनुहारिनु =मनुहारों, प्यारों। गारयौ=गाली भी। खरी=अत्यन्त । मिठाहि मीठी । अनखाहटो=क्रोध भी। उसकी मार भी प्यारों से भरी है, और गाली मी अत्यन्त मीठी है । उसका अत्यन्त क्रोध मी विना मुस्कुराहट के नहीं होना । ( नायक के हृदय में नायिका के प्रतिकूल कुछ नहीं सूझता!) नोट-इसी प्रकार संस्कृत के एक कवि कहते हैं-"लम्बकुचालिंगनतो लकुचकुचायाः पादताडनं श्रेयः”-लम्बे कुचोंवाली के आलिंगन से छोटे कुचोवाली का पद-प्रहार भी अच्छा ।” मसल मशहूर है-'दुधैल गाय की लात भी भली!' तुम सौतिन देखत दई अपनै हिय ते लाल । फिरति डहडही सबनु मैं वहै मरगजी माल ॥ ४६७ ॥ अन्वय-लाल, तुम सौतिन देखत अपने हिय ते दई, वह मरगजी मान सबन मैं डहडही फिरति । देखत=देखते रहने पर । डहडही=हरी-भरी, फूली-फली, आनन्दित । सबनुः =सब लोगों या सखियों के बीच । मरगजी= मलिन, मुरझाई हुई । हे लाल, तुमने सौतिन के देखते रहने पर भी अपने हृदय से (माला उतारकर ) उसे दी, सो उस मुरझाई हुई (मलिन) माला को का को पहने वह वह सब (सहेलियों ) में आनन्दित बनी फिरती है। लेन ) मा