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बिहारी-सतसई
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का भार उन्होंने पड़ोसी ही को सौंपा है, अतएव अब इस (अपने गुप्त प्रेमी) से खुलकर खेलने में कोई अड़चन न होगी, वह मन-ही-मन आनंदित भी हो रही है।

छला परोसिनि हाथ तैं छलु करि लियौ पिछानि।
पियहिं दिखायौ लखि बिलखि रिस-सूचक मुसुकानि॥४७५॥

अन्वय—छला पिछानि परोसिनि हाथ तैं छल करि लियौ बिलखि रिस-सूचक मुसुकानि लखि पियहिं दिखायौ।

छला = अँगूठी। छल करि = चालाकी या चालबाजी से। पिछानि = पहचानकर। लखि = देखती हुई। बिलखि = व्याकुल होकर।

उस अँगूठी को पहचानकर पड़ोसिन के हाथ से छल करके ले लिया और फिर व्याकुल होकर क्रोध-सूचक मुस्कुराहट के साथ (प्रीतम की ओर) देखती हुई प्रीतम को उसे दिखलाया (कि देखिए, यह आपकी अँगूठी उसकी अँगुली में कैसे गई!)

रहिहैं चंचल प्रान ए कहि कौन की अगोट।
ललन चलन की चित धरी कल न पलनु की ओट॥४७६॥

अन्वय—कहि कौन की अगोट ए चंचल प्रान रहिहैं, ललन चलन की चित धरी पलनु की ओट कल न।

कहि = कहो। अगोट = अग्र+ओट = आड़। ललन = प्रीतम। चित धरी = इरादा किया है, निश्चय किया है। पलनु = पलकें, आँखें।

कहो, किसकी आड़ में ये चंचल प्राण (टिक) रहेंगे—कौन इन प्राणों को निकलने से रोक सकेगा? प्रीतम ने (विदेश) चलने की की बात चित्त में धरी है और यहाँ आँखों की ओट होते ही कल नहीं पड़ती—(उन्हें देख बिना क्षण-भर शान्ति नहीं मिलती)।

पूस मास सुनि सखिन पैं साँई चलत सवारु।
गहि कर बीन प्रबीन तिय राग्यौ रागु मलारु॥४७७॥

अन्वय—पूस मास सखिन पैं सुनि साँई सवारु चलत प्रबान तिय कर बीन गहि मलारु रागु राग्यौ।