चाह-भरीं अति रस-भरीं बिरह-भरीं सब बात।
कोरि सँदेसे दुहुँनु के चले पौरि लौं जात॥४८३॥
अन्वय—सब बात चाह-भरीं अति रस-भरीं बिरह-भरीं, पौरि लौं जात दुहुँनु के कोरि सँदेसे चले।
चाह = प्रेम। पौरि = दरवाजा, देवढ़ी। लौं = तक।
(नायक के परदेश चलने के समय नायक और नायिका—दोनों—की) सभी बातें प्रेमपूर्ण, अत्यन्त रसीली और बिरह से भरी थीं। यों दरवाजे (देवढ़ी) तक जाते-जाते दोनों के (परस्पर) करोड़ों सन्देश आये-गये। (प्रेम रस और बिरह से भरी बातें होती चली गई।)
मिलि-चलि चलि-मिलि मिलि चलत आँगन अथयौ भानु।
भयौ महूरत भोर को पौरिहिं प्रथम मिलानु॥४८४॥
अन्वय—मिलि-मिलि चलि-चलि मिलि चलत आँगन भानु अथयौ, भोर कौ महूरत पौरिहिं प्रथम मिलानु भयौ।
अथयौ = डूब गया। भानु = सूर्य। महूरत = शुभ समय, यात्रा का समय। भोर = तड़कै, प्रातः। पौरिहिं = दरवाजा। मिलानु = मुकाम, डेरा।
मिल-मिलकर, चल-चलकर, पुनः मिलकर फिर चलते हैं (यों इस मिलने-चलने में) आँगन ही में सूर्य डूब गया—प्रातःकाल ही का यात्रा- समय होने पर भी दरवाजे में ही पहला मुकाम हुआ—यद्यपि भोर ही यात्रा करने चले, तो भी इस मिलने-मिलाने से संध्या होने के कारण दरवाजे पर ही पहला डेरा जमाना पड़ा।
दुसह बिरह दारु दसा रह्यौ न और उपाइ।
जात-जात जौ राखियतु प्यौ कौ नाउँ सुनाइ॥४८५॥
अन्वय—बिरह दुसह दसा दारुन और उपाइ न रह्यौ, प्यौ को नाउँ सुनाइ जात-जात ज्यौ राखियतु।
दुसह = असह्य। दारुन = भयंकर। और = अन्य। जात-जात = जाते-जाते, गमनोन्मुख। ज्यौ = प्राण। प्रिय = प्रीतम।
बिरह असह्य है, अवस्था भयंकर है। (इस दशा से छुटकारा दिलाने का)