पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२१३

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१९३ सटीक : बेनीपुरी चाह-भरी अनि रस-भरी बिरह-भरी सब बात । कोरि सँदेसे दुहुँनु के चले पौरि लौं जात ॥ ४८३ ॥ अन्वय-सब बात चाह-मरी अति रस-मरी बिरह-मरी, पोरि लौं जात दुहुँनु के कोरि सँदेसे चले। चाह = प्रेम । पौरि =दरवाजा, देवढी । लौं-तक । (नायक के परदेश चलने के समय नायक और नायिका-दोनों-की) समी बातें प्रेमपूर्ण, अत्यन्त रसीली और विरह से मरी थीं। यों दरवाजे (देवढी) तक जाते-जाते दोनों के (परस्पर ) करोड़ों सन्देश प्राये-गये । (प्रेम, और विरह से भरी बातें होती चली गई।) मिलि-चलि चलि-मिलि मिलि चलत आँगन अथयो भानु । भयौ महूरत भोर को पौरिहिं प्रथम मिलानु ।। ४८४ ॥ अन्वय-मिलि-मिलि चलि-चलि मिलि चलत आँगन मानु अथयौ, मोर को महूरत पौरिहिं प्रथम मिलानु भयो अथयो =डूब गया | भानु = सूर्य । महूरत = शुभ समय, यात्रा का समय। भोर = तड़के, प्रातः । पौरिहिं = दरवाजा । मिलानु = मुकाम, डेरा मिल-मिलकर, चल-चलकर, पुनः मिलकर फिर चलते हैं (यों इस मिलने- चलने में) आँगन ही में सूर्य डूब गया -प्रातःकाल ही का यात्रा समय होने पर मी दरवाजे में ही पहला मुकाम हुअायद्यपि मोर ही यात्रा करने चले, तो भी इस मिलने-मिलाने से संध्या होने के कारण दरवाजे पर ही पहला डेरा - जमाना पड़ा। दुसह विरह दामन ढसा रह्यो न और उपाइ । जात-जात जौ राखियतु प्यो को नाउँ सुनाइ ।। ४८५ ।। अन्वय-विरह दुसह दसा दारुन और उपाइ न रखो, प्यौ को नाउँ सुनाइ जात-जात ज्यौ राखियतु । दुसह =असह्य । दारुन =भयंकर । और अन्य । जात-जा- जाते-जाते, गमनोन्मुख । ज्योः =प्राण । प्रिय प्रीतम । विरह भसस है, अवस्था मयंकर है। (इस दशा से छुटकारा दिलाने का) १३