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बिहारी-सतसई
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कोई अन्य उपाय नहीं रह गया। प्रीतम का नाम सुना-सुनाकर ही उसके गमनोन्मुख प्राणों की रक्षा की जाती है।

पजर्यौ आगि बियोग की बह्यौ बिलोचन नीर।
आठौं जाम हियौ रहै उड़यौ उसास-समीर॥४८६॥

अन्वय—बियोग की आगि पजर्यौ बिलोचन नीर बह्यौ, हियौ आठौं जाम उसास-समीर उड़्यौ रहै।

पजर्यौ = पजरना, प्रज्वलित होना। बिलोचन = आँखों से। जाम = पहर। उसास = लम्बी साँस, शोकोच्छ्वास। समीर = पवन।

विरह की आग प्रज्वलित हो गई है, आँखों से आँसू बह रहे हैं—आँसुओं की झड़ी लग गई है—और हृदय में आठो पहर उच्छ्वास का पवन (बवंडर) उठ रहा है। (यों वह अबला एक ही साथ जल भी रही है, डूब भी रही है और बवंडर में उड़ भी रही है!)

नोट—विधवाओं की दशा पर एक ने लिखा है—"आह की अगिन में तड़पती है जलती है, लांछन की लहरी डुबोती प्राण लेती है। बिरह-बवंडर में व्याकुल बनी है बाला, आह री नियति! यह कैसी तेरी चित्रशाला!"

पलनु प्रगटि बरुनीनु बढ़ि छिनु कपोल ठहरात।
अँसुवा परि छतिया छिनकु छनछनाइ छिपि जात॥४८७॥

अन्वय—पलनु प्रगटि बरुनीनु बढ़ि छिनु कपोल ठहरात, अँसुवा छतिया परि छिनकु छनछनाइ छिपि जात।

पलनु = पलकें, आँखों में। बरुनीनु = पपनी या पलक के बालों में। कपोल = गाल। छिनकु = छिन + एकु = एक क्षण। छिपि जात = लुप्त हो जाते हैं।

पलकों में प्रकट होते हैं—पलक ही उनकी जन्मभूमि है, बरुनियों में बढ़ते हैं—बरुनी ही उनकी क्रीड़ाभूमि है, (और वहाँ से बढ़कर) क्षण-भर के लिए (चिकने) गालों पर ठहरते हैं—यों गाल उनकी प्रवास-भूमि या कर्म-भूमि हैं। फिर आँसू (उस नायिका की विरह-विदग्ध) छाती पर पड़ एक ही क्षण में छनछनाकर लुप्त हो जाते हैं—अतएव छाती ही उनकी श्मशानभूमि हुई!