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सटीक : बेनीपुरी
 

नोट—बिहारी ने इस एक ही दोहे में आँसुओं के बहाने मनुष्यों के जीवन की एक तस्वीर-सी खींच दी है। जन्म, बचपन, प्रवास या कर्म-साधना और मृत्यु—ये चार ही मनुष्य-जीवन के खेल हैं। उर्दू-कवि अकबर ने भी एक ही शेर में वर्त्तमान शिक्षितों के जीवन की बड़ी ही अच्छी तस्वीर खींची है—"हम क्या कहें अकबर की क्या कारे-नुमायाँ कर गये। बी॰ ए॰ हुए, डिपटी बने, पेन्शन मिली, फिर मर गये!"

करि राख्यौ निरधारु यह मैं लखि नारी-ज्ञानु।
वहै बैदु ओषधि वहै वहई जु रोग-निदानु॥४८८॥

अन्वय—मैं नारी-ज्ञानु लखि यह निरधारु करि राख्यौ। वहै बेंदु वहै ओषधि जु वहई रोग-निदानु।

निरधारु = निश्चय। नारी-ज्ञानु = (१) नाड़ी का ज्ञान (२) स्त्री की चेष्टा। बैदु = वैद्य। निदान = उपचार, व्यवस्था।

मैंने नाड़ी का ज्ञान देखकर (इम नारी की चेष्टा देखकर) यह निश्चय कर रक्खा है कि वही वैद्य है, वही औषध है, और जो रोग है वहीं निदान भी है। (प्रेम की बीमारी है, प्रेम ही उपचार है, प्रेम ही वैद्य बनेगा, और होगी भी प्रेम ही की होगी।)

नोट—इस दोहे में भी बिहारी ने वैद्यक के सभी उपकरणों का अच्छा विवरण दिया है। रोग, निदान, औषध और वैद्य—बस ये चार ही वैद्यक के उपकरण—साधन हैं। प्रेम की बीमारी पर कबीरदास कहते हैं—"कबिरा बैद बुलाइया पकड़के देखी बाँह। बैद न वेदन जानई कसक कलेजे माह॥ जाहु वैद घर आपने तेरा किया न होय। जिन यह वेदन निर्मई भला करेगा सोय॥" कैसे अनूठे दोहे हैं!

मरिबै कौ साहसु ककै बढ़े बिरह की पीर।
दौरति ह्वै समुहै ससी सरसिज सुरभि-समीर॥४८९॥

अन्वय—बिरह की पीर बढ़ै मरियै कौ साहसु ककै ससी सरसिज सुरमि-समीर समुहैं है दौरति।