बिरह-जरी लखि जीगननु कह्यौ न उहि कै बार।
अरी आउ भजि भीतरै बरसत आजु अँगार॥४९२॥
अन्वय—बिरह-जरी जीगननु लखि उहि कै बार न कह्यौ अरी भीतरै भजि आउ, आजु अँगार बरसत।
बिरह-जरी = विरह-ज्वाल से जली हुई। जीगननु = जुगनुओं, भगजोग-नियों। भजि = भागकर। अँगार = आग, चिनगारी।
विरह से जली हुई उस (नायिका) ने भगजोगनियों को देखकर उन सखियों से न जाने कितनी बार कहा (अर्थात् बहुत बार कहा) कि अरी! भीतर भाग आ, आज (आकाश से) चिनगारी की वर्षा हो रही है (जल जायगी!)।
नोट—विरह में व्याकुल बाला को वर्षा-ऋतु में दीख पड़नेवाली भग-जोगनी चिनगारी के समान दाहक मालूम पड़ती है।
अरैं परैं न करैं हियौ खरैं जरैं पर जार।
लावति घोरि गुलाब-सौं मलै मलै घनसार॥४९३॥
अन्वय—अरैं न परैं करैं हियौ खरैं जरैं पर जार, भलै घनसार मलैं गुलाब-सौं घोरि लावति।
अरैं न परैं = अलग नहीं करती। खरैं = अत्यन्त। मलै = मलयज चंदन, श्रीखंड। घनसार = कर्पूर।
अरी सखी! हठ में मत पड़, अत्यन्त जले हुए हृदय को क्यों जला रही है? श्रीखंड और कर्पूर को मिलाकर (और उन्हें) गुलाब-जल में घोलकर (हृदय पर) क्यों लगा रही है? (इससे तो ज्वाला और भी बढ़ती है!)
नोट—विरहिणी नायिका की श्रीखंड, कर्पूर, गुलाब-जल आदि परम शीतल पदार्थ भी अत्यन्त तापदायक प्रतीत होते हैं।
कहे जु बचन बियोगिनो बिरह-विकल बिललाइ।
किए न को अँसुवा सहित सुआ ति बोल सुनाइ॥४९४॥
अन्वय— बिरह-बिकल बियोगिनी जु बिललाइ बचन कहे, सुआ ति बोल सुनाइ को अँसुवा सहित न किए।