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सटीक : बेनीपुरी
 

आड़े दै आले बसन जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेह-बस सखी सबै ढिग जाति॥४९७॥

अन्वय—जाड़े की राति हूँ आले बसन आड़े दै साहसु ककै सनेह-बस सबै सखी ढिग जाति।

आड़े दै = ओट देकर, ओट करके। आले = भींगे हुए, ओढ़े। साहस = हिम्मत। सखी सबै = सभी सखियाँ। ढिग = निकट।

जाड़े की (ठंढी) रात में भी, गीले कपड़े की ओट कर, बड़े साहस से, प्रेमवश सभी सखियाँ (उस विरहिणी नायिका के) निकट जाती हैं! (क्योंकि उसके शरीर में ऐसी प्रचण्ड विरह-ज्वाला है कि आँच सही नहीं जाती!)

सुनत पथिक-मुँह माह-निसि लुबैं चलति उहिं गाम।
बिनु बूझैं बिनु ही कहैं जियति बिचारी बाम॥४९८॥

अन्वय—पथिक-मुँह सुनत माह-निसि उहिं गाम लुबैं चलति, बिनु बूझैं बिन ही कहै बिचारी बाम जियति।

पथिक = राही, यात्री, मुसाफिर। लुवैं = लू। उहि गाम = उसी ग्राम (गाँव) में। बिचारी = समझा। जियति = जोती है।

बटोही के मुँह से यह सुनकर कि माघ की रात में भी उस गाँव में लू चलती है, बिना पूछे और बिना कहे-सुने ही (नायक ने) समझ लिया कि नायिका (अभी) जीती है (और निस्संदेह उसीकी विरह-ज्वाला से मेरे गाँव में ऐसी हालत है।)

इत आवति चलि जाति उत चली छ-मातक हाथ।
चढ़ी हिंडारै-सैं रहे लगी उसासनु साथ॥४९९॥

अन्वय—उसासनु साथ लगी हिंडोरैं-चढ़ी-सैं रहै, चली छ-सातक हाथ इत आवति उन चलि जाति।

इत = इधर। उत = उधर। चली = चलायमान या विचलित होकर या झोंके में पड़कर = खिंचकर। उसासनु = दुःख के कारण निकली हुई आह-भरी लम्बी साँस, जिसे दीर्घ निःश्वास, शोकोच्छ्वास, निसाँस आदि भी कहते हैं।