आठों पहर सदा आँखें जो जलती और बरसती रहती हैं—व्याकुल बनी रहतीं और आँसुओं की झड़ी लगाये रहती हैं, (सो ऐसा मालूम होता है कि) मानो बिजली-सहित मेघ को विरह ने यहाँ (आँखों में) ला रक्खा है।
नोट—एक उर्दू-कवि ने भी मेघ और बिजली को इकट्ठा कर रक्खा है—"मुसकुराते जाते हैं कुछ मुँह से फरमाने के बाद, बिजलियाँ चमका रहे हैं मेह बरसाने के बाद।" किन्तु सोरठे की सुष्ठुता और सरसता कुछ और ही है।
बिरह-बिपति-दिनु परत हीं तजे सुखनु सब अंग।
रहि अब लौंऽब दुखौ भए चलाचली जिय संग॥५०२॥
अन्वय—बिरह-बिपति-दिनु परत हीं सुखनु सब अंग तजे, अब लौं रहिऽब दुखौ संग जिय चलाचली भए।
रहि अब लौंऽब = रहि अब लौं अब = अबतक रहकर अब। दुखौ = दुःख भी। चलाचली भए = चलने को तैयार हुए।
विरह-रूपी विपत्ति के दिन आते ही सब सुखों ने मेरे शरीर को छोड़ दिया था। (बचा था केवल दुःख, सो) अबतक रहकर, अब दुःख भी जीवन के साथ-ही-साथ चलने की तैयारी करने लगा।
नोट—एक उर्दू-कवि ने विपत्ति के दिन के विषय में कहा है—"कौन होता है बुरे वक्त की हालत का शरीक। मरते दम आँख को देखा है कि फिर जाती है॥"
नयैं बिरह बढ़ती बिथा खरी बिकल जिय बाल।
बिलखी देखि परोसिन्यौ हरखि हँसी तिहिं काल॥५०३॥
अन्वय—नयें बिरह बढ़ती बिथा बाल जिय खरी बिकल, परासिन्यौ बिलखी देखि तिहिं काल हरखि हँसी।
बिथा = व्यथा, पीड़ा। बिलखी = व्याकुल हुई।
नये वियोग की बढ़ती हुई व्यथा से उस बाला का हृदय अत्यन्त विकल था। किन्तु इतने में पड़ोमिन को भी व्याकुल देख (यह समझकर कि इसे भी मेरे पति से गुप्त प्रेम था, अतएव अब यह भी दुःख भोगेगी, ईर्षा से वह) तत्काल ही हर्षित होकर हँसने लगी।