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बिहारी-सतसई
२०२
 

छतौ नेहु कागद हियैं भई लखाइ न टाँकु।
बिरह तचैं उघर्यौ सु अब सेहुँड कै सो आँकु॥५०४॥

अन्वय—कागद-हियैं नेहु छतौ टाँकु लखाइ न भई, सु अब सेहुँड़ कै आँकु-सो बिरह तचैं उघर्यौ।

छतौ = अछतौ = था। लखाइ न भई = दीख नहीं पड़ी। टाँकु = लिखावट। तचैं = तपाये जाने पर। सेहुँड कै सो आँकु = सेंहुड़ के दूध से लिखे गये अक्षर के समान, जो कि आग पर तपाये बिना दीख नहीं पड़ते।

कागज-रूपी हृदय पर प्रेम (लिखा हुआ) था, किन्तु उसकी लिखावट दिखाई नहीं पड़ती थी, सो अब सेंहुड़ के दूध से लिखे हुए अक्षर के समान वह विरह (रूपी आग) से तपाये जाने पर (स्पष्ट) प्रकट हो गया। करके मीड़े कुमुम लौं गई बिरह कुम्हिलाइ। सदा समीपिनि सखिनु हूँ नीठि पिछानी जाइ॥५०५॥ अन्वय—करके मीड़े कुसुम लौं बिरह कुम्हिलाइ गई, सदा समीपिनि सखिनु हूँ नीठि जाइ पिछानी।

मीड़े = मसले या मीजे हुए। कुसुम = कोमल फूल। समीपिनि = निकट रहनेवाली। नीठि = मुश्किल से। पिछानी = पहचानी।

हाथ से मसले हुए फूल के समान विरह से कुम्हला गई है। सदा निकट रहनेवाली सखियों से भी मुश्किल से पहचानी जाती है। (अत्यन्त दुर्बलता के कारण चिरसंगिनी सखियाँ भी नहीं पहचानती!)

लाल तुम्हारे बिरह की अगिनि अनूप अपार।
सरसै बरसै नीर हूँ झर हूँ मिटै न झार॥५०६॥

अन्वय—लाल तुम्हारे बिरह की अगिनि अनूप अपार। नीर बरसै हूँ सरसै झर हूँ झार न मिटै।

अनूप = जिसको उपमा (बराबरी) न हो, अनुपम। अपार = जिसका पार (अन्त) न हो। सरसै = सरसता है, प्रज्वलित होता है। झर = झड़ी लगना। झार = ज्वाला।