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बिहारी-सतसई
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बचाकर) संसार में खूब यश लूटो—यह कठिन विरह-ज्वाला (विषम-ज्वर) में जल रही है, अतः आकर सुन्दर दर्शन (सुदर्शन-रस) देकर इसे जिला दीजिए।

नोट—वैद्यक के अनुसार सुदर्शन-रस से विषम-ज्वर छूटता है।

नित संसौ हंसौ बचतु मनौ सु इहिं अनुमानु।
बिरह-अगिनि लपटनु सकतु झपटि न मीचु-सचानु॥५१५॥

अन्वय—हंसौ बचतु नित संसौ सु इहि अनुमान मनौ बिरह-अगिनि-लपटनु मीचु-सचानु न झपटि सकतु।

संसौ = संशय = संदेश। हंसौ = (१) प्राण को (२) हंस को। मीचु = मृत्यु। सचानु = श्येन = 'बाज' नामक शिकारी पक्षी।

उसके प्राण (रूपी-हंस) को बचते देख नित्य संदेह होता है (कि वह कैसे बचा?) यह अनुमान होता है कि मानो बिरह-रूपी आग की लपटों के कारण मृत्यु-रूपी बाज उसपर झपट नहीं सकता।

करी बिरह ऐसी तऊ गैल न छाड़तु नीचु।
दीनै हूँ चसमा चखनु चाहै लहै न मीचु॥५१६॥

अन्वय—बिरह ऐसी करी तऊ नीचु मीचु गैल न छाड़तु, चखनु चसमा दीनै हूँ चाहै न लहै।

गैल छाड़तु = (गैल = राह) पीछा नहीं छोड़ती। दीनै हूँ चसमा = ऐनक देने (लगाने) पर भी। चखनु = आँखों पर। नीचु मीचु = निगोड़ी मौत।

बिरह ने उसे ऐसी (दुबली-पतली) बना दिया है, तो भी नीच मृत्यु उसका पीछा नहीं छोड़ती। (किन्तु क्या कर बेचारी?) आँखों पर चश्मा चढ़ाकर भी (उसे ढूँढ निकालना) चाहती है, (तो भी) नहीं पाती। नोट-"नातवानी ने बचाई जान मेरी हिज्र में। कोने-कोने ढूँढती फिरती कजा थी मैं न था॥"—जफर।

मरनु भलौ बरु बिरह तैं यह निहचय करि जोइ।
मरनु मिटै दुखु एक कौ बिरह दुहूँ दुखु होइ॥५१७॥