मरनु एक को । २०७ सटीक : बेनीपुरी अन्वय- -यह निहचय करि जोइ बिरह तैं बरु मरनु मलौ, दुखु मिटै, विरह दुहूँ दुखु होइ । मरनु =मृत्यु । बरु = बल्कि । जोइ =देखो। यह निश्चय करके देखो कि विरह से बल्कि मृत्यु ही अच्छी है, क्योंकि मृत्यु से तो (कम-से-कम ) एक आदमी का दुःख छूट जाता है, किन्तु विरह में (प्रेमी-प्रेमिका) दोनों को दुःख होता है। बिकसित नवमल्ली-कुसुम बिकसति परिमल पाइ । परसि पजारति बिरहि-हिय बरसि रहे की बाइ ।। ५१८ ॥ अन्वय-नवमल्ली विकसित कुसुम पाइ परिमल विकसति । बरसि रहे की बाइ बिरहि-हिय परसि पजारति । विकसित=खिलते हुए । नवमल्ली =नई चमेली । कुसुम = कोमल फूल । परिमल =सुगंध । परमि= स्पर्श कर । पजारतिप्रज्वलित कर देती है। बरसि रहे की=बरसते समय की । बाइ - वायु = हवा । जो नई चमेली के खिलते हुए फूल की सुगन्ध पाकर निकलती है, वह वर्षा होते समय की हवा, विरही के हृदय को स्पर्श कर प्रज्वलित कर देती है। औंधाई सीसी सुलखि विरह वरनि बिललात । विचहीं सूखि गुलाब गौ छींटौं छुई न गात ॥ ५१९ ।। अन्वय-बिरह बरनि बिललात मुलांख सीसी औंधाई, गुलाब बिचहीं सूखि गौ, छीटौं गात न छुई । औंधाई: = उलट ( उड़ेल) दी । बरनि =जलती हुई । बिललात=रोती- कलपतो है, व्याकुल हो बक-झक करती है । छीटो = एक छींटा भी। गात = देह । विरह से जलती और बिललाती हुई देखकर (सखियों ने नायिका के शरीर पर गुलाब-जन की) शीशी उलट दा, (किन्तु विरह की धधकती आँच के कारण) गुलाब-जल बीच ही में सूख गया, ( उसका) एक छींटा मी (विरहिणी के ) शरीर को पर्श न कर सका ।