पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२२९

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सटीक : बेनीपुरी
 

कमर की) जंजीर बनाकर सदा मुख को खोले हुए (उस विरहिणी नायिका के) नेत्र रूपी फकीर पड़े रहते हैं—डेरा डाले रहते हैं।

नोट—'मलिंग' फकीर हाथों में कौड़ियों की माला रखते और कमर में लोहे की जंजीर पहनते हैं तथा सदा मुख खोले कुछ-न-कुछ जपते रहते हैं। विरहिणी के आँसू टपकाते और टकटकी लगाये हुए नेत्रों से यहाँ रूपक बाँधा गया है। 'देव' कवि ने शायद इसी सोरठे के आधार पर यह कल्पना की है—"बरुनी बघम्बर में गृदरी पलक दोऊ कोये राते बसन भगोहैं भेख रखियाँ। बूड़ी जल ही में दिन जामनी रहति भौंहैं धूम सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ॥ आँसू ज्यौं फटिक माल लाल डोरे सेल्ही सजि भई है अकेली तजि चेली सँग सखियाँ। दीजिये दरस 'देव' लीजिये सँजोगिनि कै जोगिन ह्वै बैठी हैं बिजोगिन की अखियाँ॥"

जिहिं निदाघ-दुपहर रहै भई माह की राति।
तिहिं उसीर की रावटी खरी आवटी जाति॥५२३॥

अन्वय—जिहिं निदाघ-दुपहर माह की राति भई रहै, तिहिं उसीर की रावटी खरी आवटी जाति।

निदाघ = ग्रीष्म, जेठ-बैसाख। माह = माघ। उसीर = खस। रावटी = छोलदारी। खरी = अत्यन्त। आवटी जाति = औंटी जाती या संतप्त हो रही है।

जिस (रावटी) में ग्रीष्म की (जलती हुई) दुपहरी भी माघ की (अत्यन्त शीतल) रात-सी हुई रहती है, उस खस की रावटी में भी (यह विरहिणी नायिका विरह-ज्वाजा से) अत्यन्त संतप्त हो रही है।

तच्यौ आँच अब विरह की रह्यौ प्रेमरस भीजि।
नैननु कै मग जल बहै हियौ पसीजि-पसीजि॥५२४॥

अन्वय—प्रेमरस भीजि रह्यौ अब बिरह की आँच तच्यौ। हियौ पसीजि-पसीजि नैननु कै मग जल बहै।

तच्यौ = तपाया जाना, जलना। बिरह = वियोग। प्रेमरस = (१) प्रेम का रस (२) प्रेम का जल।

(नायिका का हृदय) प्रेम के रस से भीजा हुआ था, और अब विरह की