बिहारी-सतसई [ सरल-टीका-सहित ] प्रथम शतक मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोइ । जा तन की झाँई परै स्यामु हरित दुति होइ ॥१॥ अन्वय-सोइ राधा नागरि मेरी मव-बाधा हरौ, जा तन की झाँई परें, स्यामु दुति हरित होइ। भव-बाधा= संसार के कष्ट, जन्ममरण का दुःख । नागरि=सुचतुरा । झाई = छाया । हरित =हरी । दुति = धुति, चमक । वहीं चतुरी राधिका मेरी सांसारिक बाधाएँ हर-नष्ट करें; जिनके (गोरे ) शरीर की छाया पड़ने से ( साँवले ) कृष्ण की धुति हरी हो जाती है। नोट-नीले और पीले रंग के संयोग से हरा रंग बनता है। कृष्ण के अंग का रंग नीला और राधिका का काञ्चन-वर्ण (पीला)-दोनों के मिलने से 'हरे रंग प्रफुल्लता की सृष्टि हुई । राधिका से मिलते ही श्रीकृष्ण खिल उठते थे । कविघर रसलीन भी अपने अंग-दर्पण' में राधा की यो वन्दना करते हैं- राघा पद बाधा-हरन साधा कर रसलीन । अंग अगाधा लखन को कीन्हों मुकुर नवीन ।