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बिहारी-सतसई
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आँच में जल रहा है। (इसी कारण) हृदय पसीज-पसीजकर नेत्र के रास्ते से जल बह रहा है।

नोट—यह बड़ा सुन्दर रूपक है। हृदय (प्रेम-रूपी) पानी से भरा बर्तन है, विरह आँच है, आँखें नली हैं, आँसू अर्क है। अर्क चुलाने के लिए एक बर्तन में दवाइयाँ और पानी रख देते हैं। नीचे से आँच लगाते हैं। बर्तन में लगी हुई नली द्वारा अर्क चूता है। विरहिणी मानो साक्षात् रसायनशाला है।

स्याम सुरति करि राधिका तकति तरनिजा-तीरु।
अँसुवन करति तरौंस कौ खिनकु खरौंहों नीरु॥५२५॥

अन्वय—राधिका स्याम सुरति करि तरनिजा-तीरु तकति, अँसुवनु खिनकु तरौंस कौ नीरु खरौंहौं करति।

सुरति = याद। तरनिजा = तरणि + जा= सूर्य की पुत्री, यमुना। तरौंस = तलछट। खिनकु = एक क्षण। खरौंहों = खारा, नमकीन।

श्रीश्यामसुन्दर की याद कर (विरहिणी) राधिका (श्यामला) यमुना के तीर को देखती हैं और, आँसुओं (के प्रवाह) से एक क्षण में ही उसके गर्भस्थल जल को भी नमकीन बना देती हैं—(उनके नमकीन आँसुओं के मिलने से यमुना का तलछट—निचली तह—का पानी भी नमकीन हो जाता है।)

गोपिनु कैं अँसुवनु भरी सदा असोस अपार।
डगर-डगर नै ह्वै रही बगर-बगर कैं बार॥५२६॥

अन्वय—गोपिनु कै अँसवनु भरी सदा असोस अपार नै बगर-बगर के बार डगर-डगर ह्वै रही।

असोस = अशोष्य, जो कभी न सूखे। अपार = अगाध, अलंघनीय। डगर = गली। नै = नदी। बगर = घर। बार = द्वार, दरवाजा।

गोपियों के आँसुओं से भरी, कभी न सूखनेवाली और अपार नदियाँ (ब्रजमंडल के) घर-घर के द्वार पर और गली-गली में (प्रवाहित) हो रही हैं—(कृष्ण के विरह में गोपियाँ इतना रोती हैं कि ब्रज की गली-गली में आँसुओं की नदियाँ बहती हैं।)

नोट—सूरदासजी ने भी गोपियों के आँसुओं की यमुना बहाई है—"जब