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सटीक : बेनीपुरी
 

में कितनी तिथियों की हानि हो जाती है, और लुप्त होने पर भी वे पत्रा में लिखी जाती हैं, पर उनकी गणना नहीं होती।

(मेरे प्राण) गिनती में गिने जाने से भी रहे—अब कोई इनकी (जीवित में) गिनती भी नहीं करता। रहते हुए भी न रहने के समान हो रहे हैं। हे सखी, अब ये मेरे प्राण क्षय-तिथि के समान शरीर में पड़े रहते हैं।

जाति मरी बिछुरति घरी जल-सफरी की रीति।
खिन-खिन होति खरी-खरी अरी जरी यह प्रीति ॥५३२॥

अन्वय—जल-सफरी की रीति घरी बिछुरति मरी जाति, अरी यह जरी प्रीति खिन-खिन खरी-खरी होति।

सफरी=मछली। रीति=भाँति, समान। खरी-खरी होति=बढ़ती जाती है। जरी=जली हुई, मुँहजली। खिन-खिन=क्षण-क्षण।

जल की मछली के समान एक घड़ी भी (प्रियतम से) बिछुड़ने पर मरी जाती हूँ। अरी सखी! तो भी यह मुँहजली प्रीति ऐसी है कि क्षण-क्षण बढ़ती ही जाती है।

मार सु मार करी खरी मरी मरीहिं न मारि।
सोंचि गुलाब घरी-घरी अरी बरीहिं न बारि ॥५३३॥

अन्वय—मार खरी सु मार करी, मरी मरीहिं न मारि, अरी घरी-घरी गुलाब सींचि बरीहिं न बारि।

मार=कामदेव। सु मार=गहरी मार या चोट। खरी=अत्यन्त, खूब। मरी=मर गई। मरीहिं=मरी हुई को। मारि=मारो। बरीहिं=जली हुई को। बारि=जलाओ।

कामदेव ने तो खूब ही गहरी मार मारी है, (जिससे) मैं मर गई हूँ, (अब फिर) मरी हुई को मत मार। अरी सखी! घड़ी-घड़ी गुलाब-जल छिड़ककर, (विरह में) जली हुई को मत जला।

रह्यौ ऐंचि अंत न लह्यौ अवधि दुसासन बीरु।
आली बाढ़तु बिरहु ज्यौं पंचाली कौ चीरु ॥५३४॥