पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२३६

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बिहारी-सतसई २१६ तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मन मोरा । सो मन रहत सदा तोहि पाहीं, जानु प्रीति-रस इतनिय माहीं। बिरह-बिकल बिनु ही लिखी पाती दई पठाइ । आँक-बिहूनीयौ सुचित सूनै बाँचत जाइ ।। ५३९ ॥ अन्वय–बिरह-बिकल बिनु लिखी ही पाती पठाइ दई । आँक-बिहूनीयौ सुचित सूनै बाँचत जाइ। ऑक-बिहूनीयौ= अक्षर-विहीन होने पर भी। सुचित=स्थिरचित होकर, अच्छी तरह से । सनै = खाली-ही-खाली । बाँचत जाइ = पढ़ता जाता है । विरह व्यथिता (बाला ने) विना लिखे ही (सादे कागज के रूप में) चिट्ठी पठा दी । (और इधर प्रेम-मत्त प्रीतम ) उस अक्षर-रहित ( चिट्ठी ) को भी अच्छी तरह से खाली-ही-खाली पढ़ता जाता है। रंगराती रातें हिये प्रियतम लिखी बनाइ । पातो काती बिरह की छाती रही लगाइ ।। ५४०॥ अन्वय-रात हियें प्रियतम रंगराती बनाइ लिखी, पाती बिरह की काती छाती लगाइ रही। रंगगती =लाल रंग में रंगी। राते हि = प्रेमपूर्ण ( अनुरक्त) हृदय । पाती = चिही । काती=छोटी तेज तलवार, कत्ती । प्रेमपूण हृदय से प्रीतम ने लाल रंग में ( लाल स्याही से ) रच रचकर चिट्ठी लिखी, और विरह को काटनेवाली तलवार समझकर उस चिट्ठी को (प्रियतमा) हृदय से लगाये रही। तर झरसी ऊपर गरी कजल जल छिरकाइ । पिय पाती बिनही लिखी बाँची बिरह-बलाइ ।। ५४१॥ अन्वय-तर झरसी ऊपर गरी कजल जल छिरकाइ, बिनही लिखी पाती पिय बिरह-बलाइ बाँची। तर =तले, नीचे। झरसी = झुलसी हुई। गरी = गली हुई । पाती = पत्री चिट्ठी । बाँची = पढ़ लिया । बलाइ%रोग । .