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बिहारी-सतसई
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तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मन मोरा।
सो मन रहत सदा तोहि पाहीं, जानु प्रीति-रस इतनिय माहीं ॥
बिरह-बिकल बिनु ही लिखी पाती दई पठाइ।
आँक-बिहूनीयौ सुचित सूनै बाँचत जाइ ॥५३९॥

अन्वय—बिरह-बिकल बिनु लिखी ही पाती पठाइ दई। आँक-बिहूनीयौ सुचित सूनै बाँचत जाइ।

आँक-बिहूनीयौ=अक्षर-विहीन होने पर भी। सुचित=स्थिरचित होकर, अच्छी तरह से। सनै=खाली-ही-खाली। बाँचत जाइ=पढ़ता जाता है।

विरह व्यथिता (बाला ने) बिना लिखे ही (सादे कागज के रूप में) चिट्ठी पठा दी। (और इधर प्रेम-मत्त प्रीतम) उस अक्षर-रहित (चिट्ठी) को भी अच्छी तरह से खाली-ही-खाली पढ़ता जाता है।

रँगराती रातैं हियैं प्रियतम लिखी बनाइ।
पाती काती बिरह की छाती रही लगाइ ॥५४०॥

अन्वय—रातैं हियैं प्रियतम रँगराती बनाइ लिखी, पाती बिरह की काती छाती लगाइ रही।

रँगगती=लाल रंग में रँगी। रातैं हियैं=प्रेमपूर्ण (अनुरक्त) हृदय। पाती=चिट्ठी। काती=छोटी तेज तलवार, कत्ती।

प्रेमपूण हृदय से प्रीतम ने लाल रंग में (लाल स्याही से) रच रचकर चिट्ठी लिखी, और विरह को काटनेवाली तलवार समझकर उस चिट्ठी को (प्रियतमा) हृदय से लगाये रही।

तर झरसी ऊपर गरी कज्जल जल छिरकाइ।
पिय पाती बिनही लिखी बाँची बिरह-बलाइ ॥५४१॥

अन्वय—तर झरसी ऊपर गरी कज्जल जल छिरकाइ, बिनही लिखी पाती पिय बिरह-बलाइ बाँची।

तर=तले, नीचे। झरसी=झुलसी हुई। गरी=गली हुई। पाती=पत्री= चिट्ठी। बाँची=पढ़ लिया। बलाइ=रोग।