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सटीक : बेनीपुरी
 

प्रेम परस्पर अप्रकट था। आज अकस्मात् विदेश से नायक के आने की बात सुनकर दोनों स्वभावतः प्रसन्न हुई। तब एक दूसरी की प्रसन्नता देखकर ताड़ गई कि यह उन्हें चाहती है। फलतः अनायास भेद खुलने के कारण दोनों परस्पर देखकर हँस पड़ी।

मलिन देह वेई बसन मलिन बिरह कैं रूप।
पिय-आगम औरै चढ़ी आनन ओप अनूप ॥५४७॥

अन्वय—देह मलिन वेई बसन बिरह कैं रूप मलिन, पिय-आगम आनन और अनूप ओप चढ़ी।

वेई=वे ही। आगम=आगमन, आना। आनन=मुख। औरै=विचित्र ही, निराली ही। ओप=कान्ति। अनूप=अनुपम।

शरीर मलिन है, वे ही मलिन कपड़े हैं और विरह के कारण रूप भी मलिन है। किन्तु प्रीतम के आगमन से उसके मुख पर और ही प्रकार की अनुपम कान्ति चढ़ गई है।

कहि पठई जिय-भावती पिय आवन की बात।
फूली आँगन मैं फिरै आँग न आँग समात ॥५४८॥

अन्वय—जिय-भावती पिय आवन की बात कहि पठई, फूली आँगन मैं फिरै आँग आंग न समात।

जिय-भावती=जो जी को भावे, प्राणों को प्यारी लगे। आँग=अंग, शरीर। आँग न आँग समात—बहुत हर्ष के समय में इस कहावत का प्रयोग होता है।

अपनी प्राणवल्लमा को प्रियतम ने अपने आने का सँदेसा कहला भेजा। (अतएव मारे प्रमन्नता के) वह फूली-फूली आँगन में फिर रही है, अंग अंग में नहीं समाते।

नोट—धनुष चढ़ावत भे तबहि लखि रिपु-कृत उत्पात।
हुलसि गात रघुनाथ को बखतर में न समात॥-पद्माकर।
रहे बरोठे में मिलन पिउ प्रानन के ईसु।
आवत-आवत की भई बिधि की घरी घरी सु॥५४९॥