२२१ सटीक : बेनीपुरो के कारण ) आँखें नीची किये दोनों दौड़कर (परस्पर ) हृदय से लिपट गये। ज्यौं-ज्यौं पावक-लपट-सी तिय हिय सौं लपटाति । । त्यौं-त्यौं छुही गुलाब-सैं छतिया अति सियराति ।। ५५२ ।। अन्वय-ज्यों-ज्यों पावक-लपट-सी तिय हिय सौं लपटाति, त्यौं-त्यौं गुलाब-छुही-सैं छतिया अति सियराति । पावक =आग । तिय =स्त्री । हिय हृदय । छुही गुलाब-से =गुलाब-जल से सींची हुई-सी । सियराति = ठंढी होती है । ज्यों-ज्यों आग की लपट के समान (ज्योतिपूर्ण, कान्तिपूर्ण और कामाग्नि- पूर्ण) वह स्त्री हृदय से लिपटती है, त्यों-त्यों गुलाब-जल से छिड़की हुई के समान छाती अत्यन्त ठंढी होती है । पोठि दिये ही नकु मुरि कर घूघट-पटु टारि । भरि गुलाल की मूठि सौं गई मूठि-मी मारि ।। ५५३ ।। अन्वय-पीठि दियें ही नैंकु मुरि कर बूंबट-पटु टारि गुलाल को मरि मूठि सौं मूठि-सी मारि गई । पीठि दियें = मुंह फेरकर । नैंकु = जरा । मुरि = मुड़कर । कर = हाथ । पटु = कपड़ा । गुनाल =अबीर । मूठि = मुट्ठी । मूठि-वशीकरण-प्रयोग की विधि। (मेरी ओर) पीठ किये हुए जरा-सा मुड़कर और हाथ से बूंघट का कपड़ा हटाकर अधीर मरी हुई मुट्ठी से (वह नायिका ) मानो (वशीकरण- प्रयोग की) मूठ-ही-सी मार गई–(उस अदा से मुझपर अबीर डालना क्या था, वशीकरण-प्रयोग का टोना करना था)। नोट-लजाशीला नायिका बूंघट काढ़े नायक की ओर पीठ किये खड़ी थी। नायक उसपर ताबड़तोड़ अचीर डाल रहा था। इतने में उसने भी तमक- कर, कुछ मुड़कर और चूँघट को हाथ से हटाते हुए नायक पर अबीर की मूठ चला ही दी । उसीपर यह उक्ति है। दियौ जु पिय लखि चखनु मैं खेलत फागु खियालु । बाढ़त हूँ अति पीर सु न काढत बनतु गुलालु ॥ ५५४ ॥