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सटीक : बेनीपुरी
 

के कारण) आँखें नीची किये दोनों दौड़कर (परस्पर) हृदय से लिपट गये।

ज्यौं-ज्यौं पावक-लपट-सी तिय हिय सौं लपटाति।
त्यौं-त्यौं छुही गुलाब-सैं छतिया अति सियराति॥५५२॥

अन्वय—ज्यों-ज्यों पावक-लपट-सी तिय हिय सौं लपटाति, त्यौं-त्यौं गुलाब-छुही-सैं छतिया अति सियराति।

पावक=आग। तिय=स्त्री। हिय=हृदय। छुही गुलाब-सैं=गुलाब-जल से सींची हुई-सी। सियराति=ठंढी होती है।

ज्यों-ज्यों आग की लपट के समान (ज्योतिपूर्ण, कान्तिपूर्ण और कामाग्निपूर्ण) वह स्त्री हृदय से लिपटती है, त्यों-त्यों गुलाब-जल से छिड़की हुई के समान छाती अत्यन्त ठंढी होती है।

पीठि दियैं ही नैंकु मुरि कर घूँघट-पटु टारि।
भरि गुलाल की मूठि सौं गई मूठि-मी मारि॥५५३॥

अन्वय—पीठि दियैं ही नैंकु मुरि कर घूँघट-पटु टारि गुलाल को मरि मूठि सौं मूठि-सी मारि गई।

पीठि दियैं=मुँह फेरकर। नैंकु=जरा। मुरि=मुड़कर। कर=हाथ। पटु=कपड़ा। गुनाल=अबीर। मूठि=मुट्ठी। मूठि—वशीकरण-प्रयोग की विधि।

(मेरी ओर) पीठ किये हुए जरा-सा मुड़कर और हाथ से घूँघट का कपड़ा हटाकर अबीर मरी हुई मुट्ठी से (वह नायिका) मानो (वशीकरण-प्रयोग की) मूठ-ही-सी मार गई–(उस अदा से मुझपर अबीर डालना क्या था, वशीकरण-प्रयोग का टोना करना था)।

नोट—लजाशीला नायिका घूँघट काढ़े नायक की ओर पीठ किये खड़ी थी। नायक उसपर ताबड़तोड़ अबीर डाल रहा था। इतने में उसने भी तमककर, कुछ मुड़कर और घूँघट को हाथ से हटाते हुए नायक पर अबीर की मूठ चला ही दी। उसीपर यह उक्ति है।

दियौ जु पिय लखि चखनु मैं खेलत फागु खियालु।
बाढ़त हूँ अति पीर सु न काढ़त बनतु गुलालु॥५५४॥