बिहारी-सतसई २२२ वह अन्वय-फागु खेजत खियालु पिय लखि चखनु मैं जु दियौ सु अति पीर बाढ़त हूँ गुलालु काढत न बनतु । लखि=ताककर । चख=आँखें । खियालु = कौतुक, विनोद, चुहल । पीर-पीड़ा । सु=सो । गुलालु = अबीर । फाग खेलते समय कौतुक-(विनोद )-वश प्रीतम ने ताककर उसकी आँखों में जो (अबीर ) डाल दी, सो अत्यन्त पीड़ा बढ़ने पर भी उससे अबीर काढ़ते नहीं बनता (क्योंकि उस पीड़ा में भी एक विलक्षण प्रेमानन्द है !) छुटत मुठिनु सँग ही छुटी लोक-लाज कुल-चाल । लगे दुहुनु इक बेर ही चलि चित नेन गुलाल ।। ५५५ ॥ । अन्वय-छुटत मुठनु सँग हा लोक-लाज कुल-चाल छुटी, इक बेर ही चलि दुहुनु चित नैन गुलाल लगे। कुल-चाल =कुल की चाल, कुल-मर्यादा । इक बेर ही = एक साथ ही । अबीर की मुट्टियाँ छूटने के साथ लोक-लज्जा और कुल-मर्यादा छूट गई । एक साथ ही चलकर दोनों के हृदय, नयन और अबीर एक दूसरे से लगे-अबीर (की मूठ ) चलाते समय ही दोनों के नेत्र लड़ गये और दिल एक हो गया। जज्यों उझकि झाँपति बदनु झुकति विहँसि सतराइ । तत्यों गुलाल मुठी झुठी झझकावत प्यौ जाइ ।। ५५६ ।। अन्वय-जज्यों उझांक बदनु झाँपति झुकति बिहँसि सतराइ, तत्यौं गुलाल झुठी मुठी प्यो झझकावत जाइ । जज्यों-ज्यों-ज्यों । उझकि=लचक के साथ उचाकर । झाँपति = ढकती है। सतराइ = डरती है। तत्यौं-त्यों-त्यों । झझकावत = डराता है । ज्या-ज्यों उझककर (नायिका ) मुँह ढॉपर्ता, झुक जाती और हँसकर डरने की चेष्टा (भावभंगी ) करती है, त्यों-त्यों अबीर की झूठी मुट्ठी से—विना अबीर को (खाली) मुही चला-चलाकर-प्रीतम उसे डरवाता जाता है । रस भिजए दोऊ दुहुनु तउ ठिकि रहे टरै न । छबि सौं छिरकत प्रेम-रँग भरि पिचकारी नैन ।। ५५७ ।।