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सटीक : बेनीपुरी
 

त्रास=भय, डर। भाजि=भागकर। गढ़वै भई=किलेदारिन हो गई। अचल=दुर्गम, दृढ़। मवास=अलंध्य स्थान, दुर्ग, किला।

शिशिर-ऋतु की सर्दी के डर से गर्मी सारे संसार में कहीं न रह सकी, (तो अन्त में) भागकर (वह) स्त्री के कुच-रूपी दुर्ग की किलेदारिन बन गई।

नोट—कविवर सेनापति कहते हैं कि सूर्य, अग्नि और रुई से अपनी रक्षा होते न देख गर्मी भागती हुई अन्त को—"पूस मैं तिया के ऊँचे कुच कनकाचल में गढ़वै गरम भइ सीत सों लरति हैं।"

द्वैज सुधा-दीधिति कला वह लखि डीठि लगाइ।
मनौं अकास अगस्तिया एक कली लखाइ॥५८७॥

अन्वय—सुधा-दीधिति द्वैज कला डीठि लगाइ वह लखि मनौं अकास अगस्तिया एकै कली लखाइ।

द्वैज=द्वितीया। सुधा-दीधिति=(अमृत-भरी किरणोंवाला) चन्द्रमा। डीठि=दृष्टि। अगस्तिया=अगस्त्य नाम का वृक्ष जिसका फूल उज्ज्वल होता है।

द्वितीया के चन्द्रमा की कला को दृष्टि लगाकर (ध्यान से) वह देखो, मानो आकाश-रूपी अगस्त्य नामक वृक्ष में एक ही कली दीख पड़ती है।

धनि यह द्वैज जहाँ लख्यौ तज्यौ दृगनु दुखदंदु।
तुम भागनु पूरब उयौ अहो अपूरबु चंदु॥५८८॥

अन्वय—यह द्वैज धनि जहाँ लख्यौ दृगनु दुखदंदु तज्यौ, अहो अपूरबु चंदु तुम भागनु पूरब उयौ।

धनि=धन्य। जहाँ=जिसे। दुखदंदु=दुख-द्वन्द्व=दुःखसमूह।

यह द्वितीया धन्य है, जिसे देखकर आँखों को दुःख-समूह ने छोड़ दिया—जिसे देखते ही आँखों के दुःख दूर हो गये। अहा! यह अपूर्व चन्द्रमा तुम्हारे ही भाग्य से पूर्व-दिशा में उगा है।

नोट—द्वितीया के चन्द्रमा को देखने के लिए नायक अपने सखाओं के साथ कोठे पर चढ़ा। उधर उसकी प्रेमिका नायिका भी अपने कोठे पर आ