गई। नायिका उसके पूरब की ओर थी। नायक-नायिका के परस्पर दर्शन के बाद एक सखा ने यह उक्ति कही।
जोन्ह नहीं यह तमु वहै किए जु जगत निकेत।
होत उदै ससि के भयौ मानहु ससहरि सेत॥५८९॥
अन्वय—यह जोन्ह नहीं वहै तमु जु जगत निकेत किए, मानहु ससि के उदै होत ससहरि सेत भयौ।
जोन्ह=चाँदनी। तमु=अंधकार। निकेत=घर। ससि=चन्द्रमा। ससहरि=सिहरकर, डरकर। सेत=श्वेत=उजला।
यह चाँदनी नहीं है, यह वही अंधकार है, जिसने संसार में अपना घर कर लिया है, (तो फिर उजला क्यों है?) मानो चन्द्रमा के उदय होते ही वह सिहरकर—भयभीत होकर—उजला (फीका) पड़ गया है।
नोट—भय से चेहरा सफेद (बदरंग) हो जाता है।
रनित भृंग-घंटावली झरित दान-मधुनीरु।
मंद-मंद आवतु चल्यौ कुंजरु-कुंज-समीरु॥५९०॥
अन्वय—भंग-घंटावली रनित मधुनीरु-दान झरित कुंज-समीरु-कुंजरु मंद-मंद चल्यौ आवतु।
रनित=रणित=बजते हुए। भंग=भौंरे। घंटावली=घंटों की कतार, बहुत-से घंटे। दान=यौवन-मदान्ध हाथी की कनपटी फोड़कर चूनेवाला रस या मद। मधुनीरु=मकरंद। कुंजरु=हाथी। कुंज-समीरु=कुंज की हवा, कुँजों से होकर बहनेवाली वायु जो छाया और पुष्प के संसर्ग से ठंढी और सुगन्धित भी होती है।
भौंरे-रूपी घंटे बज रहे हैं और मकरन्द-रूपी गज-मद झर रहा है। कुञ्ज-समीर-रूपी हार्थी मन्द-मन्द चला आ रहा है।
नोट—यह त्रिविध समीर का अतीव सुन्दर वर्णन है।
रही रुकी क्यौं हूँ सु चलि आधिक राति पधारि।
हरति तापु सब द्यौस कौ उर लगि यारि बयारि॥५९१॥