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सटीक:बेनीपुरी
 

अन्वय—रुकी रही सु क्यौं हूँ चलि आधिक राति पधारि यारि बयारि उर लगि द्यौस कौ सब तापु हरति।

पधारि=आकर। तापु=ज्वाला। द्यौस=दिन। यारि=प्रियतमा।

(अन्य समय तो) रुकी रही, किन्तु किसी प्रकार भी—किसी छल-बलसे—चलकर, आधी रात को पधारकर, वह प्रियतमा-रूपी, (ग्रीष्म-काल की) हवा हृदय से लगकर, दिन-भर के सब तापों को दूर करती है—(जिस प्रकार गुप्त प्रेमिका अन्य समय तो किसी प्रकार रुकी रहती है, पर आधी रात होते ही चुपचाप चली आती और हृदय के तापों का नाश करती है, उसी प्रकार ग्रीष्म की हवा भी रुकती, आनी और आधी रात में छाती ठंढी करनी है।)


चुवतु सेद-मकरंद-कन तरु-तरु-तर बिरमाइ।
आवतु दच्छिन-देस तैं थक्यौ बटोही-बाइ॥५९२॥

अन्वय—मकरंद-कन-सेद चुवतु तरु-तरु-तर बिरमाइ दच्छिन-देस तैं बाइ थक्यौ बटोही आवत।

सेद=स्वेद, पसीना। कन=बूँद। तरु=वृक्ष। तर=नीचे। बिरमाइ=बिलमता है या विराम लेता है, ठहरता है। बाइ=वायु, पवन।

मकरन्द की बूँद-रूपी पसीने चूते हैं, और (सुस्ताने के लिए) प्रत्येक वृक्ष के नीचे ठहरता है। (इस प्रकार) दक्षिण-दिशा से (वसन्त काल का) पवनरूपी थका हुआ बटोही चला आता है।

नोट—यह भी त्रिविध समीर का उत्कृष्ट वर्णन है—'मकरंद-कन', 'तरु-तरु-तर' और 'दच्छिन-देस तैं थक्यौ' से क्रमशः 'सुगंध, शीतल और मंद' का भाव बोध होता है। वसन्त-काल की हवा प्रायः दक्षिण की ओर से बहती भी है। मैथिल-कोकिल विद्यापति कहते हैं—"सरस बसंत समय भल पावली दखिन-पबन बहु धीरे। सपनहु रूप बचन यक भाषिय मुख ते दूरि करु चीरे।"


लपटी पुहुप-पराग-पट सनी सेद-मकरंद।
आवति नारि-नवोढ़ लौं सुखद बायु गति-मंद॥५९३॥

अन्वय—पुहुप-पराग-पट लपटी मकरंद-सेद-सनी नवोढ़ नारि लौं सुखद वायु मंद-गति आवति।