पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४१
सटीक : बेनीपुरी
 

नहिं अन्हाइ नहिं जाइ घर चित चिहुँट्यौ तकि तीर।
परसि फुरहरी लैं फिरति बिहँसति धँसति न नीर॥६००॥

अन्वय—नहिं अन्हाइ नहिं घर जाइ तीर तकि चित चिहुँट्यौ नीर परसि फुरहरी लै फिरति बिहँसति न धँसति।

अन्हाई=स्नान कर। चित चिहुँट्यौ=मन प्रेमासक्त हो गया। तीर=यमुना तट। परसि=स्पर्श कर। फुरहरी लै=फुरहरी लेना, मुख से पानी लेकर फव्वारा छोड़ना। धँसति=पैठती है। नीर =पानी।

न स्नान करती है, न घर जाती है, (श्यामला यमुना के) तट को देखकर (श्यामसुन्दर की याद में उसका) चित्त प्रेमासक्त हो गया है। अतएव, जल को स्पर्श कर, फुरहरी लेकर लौट आती है, और मुस्कुराती है, किन्तु पैठती नहीं है (कि कहीं इस श्यामल जल में श्रीकृष्ण न छिपे हों, वरना खूब छकूँगी!)

 

 

सप्तम शतक

मुँह पखारि मुँड़हरू भिजै सीस सजल कर छ्वाइ।
मौरि उचै घुँटैनु तैं नारि सरोवर न्हाइ॥६०१॥

अन्वय—मुँह पखारि मुँड़हरु भिजै सीस सजल कर छ्वाइ, मौरि उचै घूँटैनु तै नारि सरोवर न्हाइ।

मुँड़हरु=सिर का अगला भाग, ललाट। सजल=जलयुक्त, जलपूर्ण। मौरि=मौलि=मस्तक। उचै=ऊँचा उठाकर। घूँटैनु तैं=घुटनों से। न्हाह=स्नान करती है।

मुख धोकर, ललाट भिगोकर, और सिर से जलयुक्त हाथों को छुलाकर (बालों पर जल डालकर), सिर ऊँचा किये और घुटनों के बन से, वह स्त्री पोखरे में स्नान कर रही है।

१६