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सटीक : बेनीपुरी
 

चितवत जितवत हित हियैं कियैं तिरीछे नैन।
भीजैं तन दोऊ कँपैं क्यौंहूँ जप निबरैं न॥६०५॥

अन्वय—नैन तिरीछे कियैं चितवत, हियैं हित जितवत, भीजैं तन दोऊ कँपैं जप क्यौंहूँ निबरैं न।

चितवत=देखते हैं। जितवत=जिताते हैं। निबरैं न=नहीं (निवृत) समाप्त होता या निबटता।

आँखें तिरछी किये (एक दूसरे को) देखते हैं, और (अपने-अपने) हृदय के प्रेम को जिताते हैं—अपने-अपने प्रेम को उत्कृष्ट (विजेता) प्रमाणित करते हैं। (यों) भींगे हुए शरीर से दोनों काँप रहे हैं, (किन्तु उन दोनों का) जप किसी प्रकार समाप्त नहीं होता।

नोट—नायक और नायिका (दोनों) स्नान के बाद जप करते हुए ही एक दूसरे को देख रहे हैं। दोनों ही जान-बूझकर जप करने में देर कर रहे हैं। दर्शन-लालमा के आगे सर्दी की कँपकँपी क्या चीज है!

दृग थिरकौंहैं अधखुले देह थकौंहैं ढार।
सुरति-सुखित-सो देखियतु दुखित गरभ कैं भार॥६०६॥

अन्वय—अधखुले दृग थिरकौंहैं देह थकौंहैं ढार गरभ कैं भार दुखित सुरति-सुखिन-सी देखियतु।

दृग=आँखें। थिरकौंहैं=थिरकते हुए-से, बहुत धीरे-धीरे नाचते हुए-से। थकौंहैं ढार=थके हुए के ढंग के, थके हुए-से। सुरति-सुखित-सी=तुरत समागम करके प्रसन्न हुई-सी। गरभ=गर्भ।

अधखुले नेत्र थिरकते-से हैं—मन्द-मन्द गति से इधर-उधर होते हैं—और शरीर थका हुआ-सा है। गर्भ के बोझ से दुःखित (वह नायिका) समागम करके प्रसन्न हुई-सी दीख पड़ती है। (लक्षणों से भ्रम होता है कि वह गर्म के भार से दुःखित नहीं है, क्योंकि समागम-जनित चिह्न प्रत्यक्ष हैं)।

नाट—गर्भवती नायिका का वर्णन—आँखो की मन्द (आलस-भरी) गति, उनका आधा खुला रहना (झपकी-सी लेना) और देह थकी-सी मालूम पड़ना। ये लक्षण वास्तव में गर्भ और समागम (दोनों) के सूचक हैं।