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बिहारी-सतसई
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ज्यौं कर त्यौं चुहुँटी चले ज्यौं चुहुँटी त्यौं नारि।
छबि सौं गति-सी लै चलै चातुर कातनिहारि॥६०७॥

अन्वय—ज्यौं कर त्यौं चुहुँटी चले ज्यौं चुहुँटी त्यौं नारि, चातुर कातनिहारि छबि सौं गति-सी लै चलै।

कर=हाथ। चुहुँटी=चुटकी। नारि=गर्दन। गति-सी लै चलै=गति-सी लेकर चलती है, नृत्य-सी कर रही है।

जिस प्रकार हाथ चलता है, उसी प्रकार चुटकी भी चलती है और, जिस प्रकार चुटकी चलती है, उसी प्रकार गर्दन भी चलती है—इधर-उधर हिलती है। यह चतुर चरखा कातनेवाली अपनी इस शोमा से (मानो नृत्य की) गति-सी ले रही है।

अहे दहेंडी जिन धरै जिनि तूँ लेहि उतारि।
नीकै हैं छीके छवै ऐसी ही रहि नारि॥६०८॥

अन्वय—अहे तूँ जिन दहेंडी धरै जिनि उतारि लेहि नारि नीकै हैं ऐसी ही छीके छवै रहि।

अहे=अरी। दहेंड़ी=दही की मटकी। छीके=सींका, मटकी रखने के लिए बना हुआ सिकहर, जिसे छत या छप्पर में लटकाते हैं।

अरी! तू न तो मटकी को (सीके पर) रख, न उसे नीचे उतार। हे सुन्दरी! (तेरी यह अदा) बड़ी अच्छी लगती है—तू इसी प्रकार सींके को छूती हुई खड़ी रह।

नोट—सुन्दरी युवती खड़ी होकर और ऊपर बाँहें उठाकर ऊँचे सींके पर दहेड़ी रख रही है। खड़ी होने से उसका अंचल कुछ खिसक पड़ा और बाँहें ऊपर उठाने से कुच की कोर निकल पड़ी। रसिक नायक उसकी इस अदा पर मुग्ध होकर कह रहा है कि इसी सूरत से खड़ी रह—इत्यादि। इस सरस भाव के समझदार की मौत है! चतुर्थ शतक का ३६२ वाँ दोहा देखिए।

देवर फूल हने जु सु-सु उठे हरषि अँग फूलि।
हँसी करति औषधि सखिनु देह-ददोरनु भूलि॥६०९॥