बिहारी-सतसई २४४ ज्यौं कर त्यौं चुहुँटी चले ज्यौं चुहुँटी त्यौं नारि । छबि सौं गति-सी लै चलै चातुर कातनिहारि ।। ६०७ ॥ अन्वय-ज्यों कर त्यौं चुहुँटी चळे ज्यौं चुहुँटी त्यौं नारि, चातुर कातनिहारि छबि सौं गति-सी लै चलै । कर-हाथ । चुहुँटी चुटकी । नारि = गर्दन । गति-सी लै चलै गति-सी लेकर चलती है, नृत्य-सी कर रही है। जिस प्रकार हाथ चलता है, उसी प्रकार चुटकी भी चलती है और, जिस प्रकार चुटकी चलती है, उसी प्रकार गर्दन मी चलती है-इधर-उधर हिलती है। यह चतुर चरखा कातनेवाली अपनी इस शोमा से (मानो नृत्य की) गति-सी ले रही है। अहे दहेंडी जिन धरै जिनि तूं लेहि उतारि । नीकै हैं छीके छवै ऐसी ही रहि नारि ।। ६०८ ॥ अन्वय -अहे तूं जिन दहेंडी धरै जिनि उतारि लेहि नारि नीकै हैं ऐसी ही छीके छवै रहि। अहे =अरी। दहेड़ी= दही की मटकी । छीके = सींका, मटकी रखने के लिए बना हुआ सिकहर, जिसे छत या छप्पर में लटकाते हैं। अरी ! तू न तो मटकी को (सीके पर ) रख, न उसे नीचे उतार । हे मुन्दरी ! (तेरी यह अदा) बड़ी अच्छी लगती है-तू इसी प्रकार सीके को छूती हुई खड़ी रह। नोट-सुन्दरी युवती खड़ी होकर और ऊपर बाँहे उठाकर ऊँचे सीके पर दहेड़ी रख रही है । खड़ी होने से उसका अंचल कुछ खिसक पड़ा और बाँ है ऊपर उठाने से कुच की कोर निकल पड़ी। रसिक नायक उसकी इस अदा पर मुग्ध होकर कह रहा है कि इसी सरत से खड़ी रह-इत्यादि । इस सरस भाव के समझदार की मौत है ! चतुर्थ शतक का ३६२ वाँ दोहा देखिए । देवर फूल हने जु सु-सु उठे हरषि अंग फूलि । हँसी करति ओषधि सखिनु देह-ददोरनु भूलि ।। ६०९ ।।