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बिहारी-सतसई
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हाथ जोड़कर सूर्य को प्रणाम करो—यह श्रीकृष्ण का वचन सुनकर (चीर-हरण होने के कारण नग्न बनी हुई) समी गोपियों की अत्यन्त क्रोधित आँखें भी हँसीली बन गई (कि इनकी चतुराई तो देखो, इन हाथों से ढकी हुई रही-सही लज्जा भी ये लूटना चाहते हैं!)

तंत्री नाद कबित्त-रस सरस राग रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग॥६१७॥

अन्वय—तंत्री-नाद कबित्त-रस सरस राग रति-रंग अनबूड़े बूड़े जे सब अंग बूड़े तरे।

तंत्री-नाद=वीणा की झंकार। रति-रंग=प्रेम का रंग। अनबूड़े=जो नहीं डूबे। तरे=तर गये, पार हो गये।

वीणा की झंकार, कविता का रस, सरस गाना और प्रेम (अथवा रति-क्रीड़ा) के रंग में जो नहीं डूबा—तल्लोन नहीं हुआ (समझो कि) वही डूब गया—अपना जीवन नष्ट किया; और जो उसमें सर्वांग डूब गया—एकदक गर्क हो गया, (समझो कि) वही तर गया—पार हो गया—इस जीवन का यथार्थ फल पा गया।

गिरि तैं ऊँचे रसिक-मन बूड़े जहाँ हजारु।
वहै सदा पसु-नरनु कौं प्रेम-पयोधि पगारु॥६१८॥

अन्वय—गिरि तैं ऊँचे रसिक-मन जहाँ हजारु बूड़े, वहै प्रेम-पयोधि नरनु-पसु कौं सदा पगारु।

पयोधि=समुद्र। पगारु=एकदम छिछला, पायान।

पर्वत से भी ऊँचे रसिकों के मन जहाँ हजारों डूब गये, वही प्रेम का समुद्र नर-पशुओं के लिए सदा छिछला ही रहता है—(इतना छिछला रहता है कि उसमें उनके पैर भी नहीं डूबते!)

चटक न छाँड़तु घटत हूँ सज्जन नेहु गंभीरु।
फीकौ परै न बरु फट रँग्यौ चोल-रँग चोरु॥६१९॥

अन्वय—सजन गँभीरु नेहु घटत हूँ चटक न छाँड़तु चोल-रँग-रँग्यौ चीरु फटै बरु फीकौ न परै।