. । २५१ सटीक : बेनीपुरी कोटि जतन कोऊ करौ परै न प्रकृतिहिं बीचु । नल-बल जलु ऊँचें चढ़े अंत नीच को नीचु ।। ६२५ ।। अन्वय-कोटि जतन कोऊ करो प्रकृतिहिं बीचु न परे, नल-बल जलु mas ऊँचे चढ़े अत नीच नीच को। प्रकृतिः =स्वभाव । बीचु= फर्क । नल-बल =नल का जोर । करोड़ों यत्न कोई क्यों न करे, किन्तु स्वमात्र में फर्क नहीं पड़ता- स्वभाव नहीं बदलता । नल के जोर से पानी ऊपर चढ़ता है, पर अंत में वह नीच नीचे ही को बढ़ता है । (पानी का स्वाभाविक प्रवाह जब होगा तब नीचे ही की ओर)। लटुवा लो प्रभु कर गहें निगुनी गुन लपटाइ । वह गुनी कर तैं छुटै निगुनायै है जाइ ॥ ६२६ ।। अन्वय-प्रभु कर गहैं लटुवा लौं निगुनी गुन लपटाइ, वहै गुनी कर ते छुटै निगुर्न यै हूँ जाइ। लटुवा-लट्टू =समान । गुन=(१) गुण (२) रस्सी, डोरा । गुनी =(१) गुणयुक्त (२) डोरा-युक्त। निगुनी =(१) गुण-रहित (२) डोरा-रहित । य = ही। प्रभु के हाथ पकड़ते ही-अपनाते ही-लटटू के समान गुणहीन में भी 'गुण' ('लटू' के अर्थ में 'डोरा' ) लिपट जाता है, किन्तु वही गुणी उनके हाथ से छूटते ही-ईश्वर से विमुख होते ही-पुनः गुण-हीन का गुण-हीन ही ('लटू' के अर्थ में 'डोग'-रहित ) रह जाता है। चलत पाइ निगुनी गुनी धनु मनि मुत्तिय माल । भेंट होत जयमाहि सौ भागु चाहियतु भाल ।। ६२७ ।। अन्वय-निगुनी गुनी धनु मनि मुत्तिय माल पाइ चलत जयसाहि सौं मेंट होत भागु माल चाहियतु । पाइ=पाकर । मुत्तिय = मुक्ता, मोती। जयसाहि =बिहारीलाल के आश्रयदाता जयपुर-नरेश महाराज जयसिंह । भाल =अच्छा, कपाल । निगुणी और गुणी-समी-वहाँ से धन, मणि और मुक्ता की माला । लौं