पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२७७

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सटीक:बेनीपुरी
 

अन्वय—फिरि-फिरि बिलखी ह्वै लखति फिरि-फिरि उसाँसु लेति, बीत्यौ कपासु साँई सिर सेत कच लौं चुनति।

बिलखी=व्याकुल। साँई=पति। कच=केश, बाल। चुनति=चुनती या बीनती है। बीत्यौ=बीती हुई, उजड़ी हुई।

बार-बार व्याकुल होकर देखती है, और बार-बार लम्बी साँसें लेती है—गरम आह भरती है! यों उजड़ी हुई कपास को पति के सिर के उजले केश के समान चुनती है। (कपास के उजड़े हुए खेत की कपास चुनने में उसे उतना ही कष्ट होता है, जितना वृद्ध पति के सिर के उजले केश चुनने में नवयुवती पत्नी को होता है)

नोट—कपास का खेत नायिका के गुप्त-मिलन का स्थान था। उसके उजड़ जाने पर उसे दुःख है। उजले केश के विषय में 'केशव' का कहना है—"केसव केसनि अस करी, जस अरिहू न कराहिं; चन्द्रवदनि मृगलोचनी, बाबा कहि-कहि जाहिं।"


नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ।
जेतौ नाचौ ह्वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ॥६४२॥

अन्वय—नर की अरु नल-नीर की एकै करि गति जोइ। जेतौ नीची ह्वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ।

नल-नीर=नल का पानी। एकै करि=एक ही समान। गति=चाल। जोइ=देखी जाती है।

आदमी की और नल के पानी की एक ही गति दीख पड़ती है। वे जितने ही नीचे होकर चलते हैं उतने ही ऊँचे होते हैं। (आदमी जितना ही नम्र होकर चलेगा, वह उतना ही अधिक उन्नति करेगा, और नल का पानी जितने नीचे से आयगा, उतना ही ऊपर चढ़ेगा।)


बढ़न-बढ़त सम्पति-सलिलु मन-सरोज बढ़ि जाइ।
घटत-घटत सुन फिरि घटै बरु समूल कुम्हिलाइ॥६४३॥

अन्वय—सम्पति-सलिलु बढ़त-बढ़त मन-सरोज बढ़ि जाइ। घटत-घटत सु फिरि न घटै बरु समूल कुम्हिलाइ।

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