पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२७८

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विहारी-सतसई २५८ मलिलु =पानी । सरोज कमल । बरु =भले हो । धन-रूपी जल के बढ़ते जाने से मन-रूपी कमल भी बढ़ता जाता है । किन्तु (जज के) घटते जाने पर वह (कमल) पुनः नहीं घटता, भले ही जड़ से कुम्हिला जाय । (धनी का मन गरीब होने पर भी वैसा ही उदार रह जाता है।) जो चाहौ चटक न घटै मैलो होइ न मित्त ।

  • रज राजस न छुवाइय नेहु चोक. चित्त ।। ६४४ ॥

अन्वय-मित्त जो चाही चटक न घटै मैलो न होइ, नेहु चीकनै चित्त राजस रज न छुवाइयै । चटक= चटकीलापन । मैलो=मलिन । रज =धूल । राजस =धन-वित्त । नेहु%=(१) प्रेम (२) घी, तेल । हे मित्र, जो चाहते हो कि (प्रेम या मन का ) घटकीलापन न घटे, और वह मलिन न हो, तो प्रेम (रूपी तेल) से चिकने बने हुए चित्त में रुपये-पैसे के व्यवहार-रूपी धूल को न छुलाश्रो । अति अगाधु अति औथरौ नदी कूप सरु बाइ । सो ताकौ सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाइ ।। ६४५॥ अन्वय-अति अगाधु अति औथरी नदी कूप सरु बाइ, जाकी जहाँ प्यास बुझाइ ताको सो सागरु । अगाधु =अथाह । औथरौ =उछले, छिछले । कूप = कुँआ । सरु= तालाब | बाइ = बावड़ी, वापी, सरसी । सागर =समुद्र । अत्यन्त अथाह और अत्यन्त उथली (कितनी ही ) नदियाँ, कुँए, तालाब और बावड़ियाँ हैं। किन्तु जहाँ जिसकी प्यास बुझती है, उसके लिए वही समुद्र है। मीत न नीति गलीतु है जो धरि धनु जोरि। खाएँ खरचैं जौ जुरै तौ जोरियै करोरि ॥ ६४६ ॥ अन्वय -मीत नीति न जौ गलीतु कै धनु नोरि धरिये, खाएँ खरचैं जो जुरै टौ करोरि जोरियै ।