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बिहारी-सतसई
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सलिलु=पानी। सरोज=कमल। बरु=भले ही।

धन-रूपी जल के बढ़ते जाने से मन-रूपी कमल भी बढ़ता जाता है। किन्तु (जल के) घटते जाने पर वह (कमल) पुनः नहीं घटता, भले ही जड़ से कुम्हिला जाय। (धनी का मन गरीब होने पर भी वैसा ही उदार रह जाता है।)

जो चाहौ चटक न घटै मैलो होइ न मित्त।
रज राजस न छुवाइयै नेहु चोकनैं चित्त॥६४४॥

अन्वय—मित्त जो चाहौ चटक न घटै मैलो न होइ, नेहु चीकनैं चित्त राजस रज न छुवाइयै।

चटक=चटकीलापन। मैलो=मलिन। रज=धूल। राजस=धन-वित्त। नेहु=(१) प्रेम (२) घी, तेल।

हे मित्र, जो चाहते हो कि (प्रेम या मन का) चटकीलापन न घटे, और वह मलिन न हो, तो प्रेम (रूपी तेल) से चिकने बने हुए चित्त में रुपये-पैसे के व्यवहार-रूपी धूल को न छुलाओ।

अति अगाधु अति औथरौ नदी कूप सरु बाइ।
सो ताकौ सागरु जहाँ जाकी प्यास बुझाइ॥६४५॥

अन्वय—अति अगाधु अति औथरी नदी कूप सरु बाइ, जाकी जहाँ प्यास बुझाइ ताकौ सो सागरु।

अगाधु=अथाह। औथरौ=उछले, छिछले। कूप=कुँआ। सरु=तालाब। बाइ=बावड़ी, वापी, सरसी। सागर=समुद्र।

अत्यन्त अथाह और अत्यन्त उथली (कितनी ही) नदियाँ, कुँए, तालाब और बावड़ियाँ हैं। किन्तु जहाँ जिसकी प्यास बुझती है, उसके लिए वही समुद्र है।

मीत न नीति गलीतु ह्वै जौ धरियैं धनु जोरि।
खाऐं खरचैं जौ जुरै तौ जोरियै करोरि॥६४६॥

अन्वय—मीत नीति न जौ गलीतु ह्वै धनु जोरि धरियैं, खाऐं खरचैं जौ जुरै तौ करोरि जोरियै।